प्रसिद्ध आलोचक एवं कथाकार – उपन्यासकार वैभव सिंह का हाल ही में ‘अनुमतिपत्र’ नाम से उपन्यास वाणी प्रकाशन से छपकर आया है जो भारी चर्चा में है। यह उपन्यास पृथ्वी ,संस्कृति ,प्रकृति और मनुष्यता के टूटते तथा क्षत-विक्षत होते रिश्तों की कथा कहता है। प्रख्यात लेखिका अनामिका का कहना है कि यह उपन्यास संपूर्ण मानव सभ्यता के बारे में अंतर्दृष्टि से भरा हुआ उपन्यास है। उपन्यास में सरल काव्यात्मक भाषा के कई रूप हैं जो उपन्यास को अत्यंत पठनीय व रोचक बना देते हैं। इसमें एक ओर रचनात्मकता का सघन चमत्कारिक रूप है तो दूसरी ओर देश-समाज के बारे में गहन दार्शनिक-वैचारिक चिंतन । वरिष्ठ लेखक लीलाधर मंडलोई का कहना है कि यह उपन्यास एक बड़े विजन का उपन्यास है जिसमें सूक्ष्म मानवीय संबंधों तथा उनके आगे प्रस्तुत चुनौतियों की मार्मिक कथा है। उपन्यास में यूरोपीय आर्थिक चिंतन को चुनौती देने वाले प्रसंगों का रेखांकन है। यह उपन्यास यथार्थ के बारे में निराश नहीं करता, बल्कि पैना यथार्थ-बोध विकसित करता है। प्रसिद्ध कथालोचक राकेश बिहारी का कहना है कि इस उपन्यास के केंद्र में तरौली नामक गांव है। तरौली सिर्फ गांव नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का रूपक है। इस उपन्यास की कथा स्वातंत्र्योत्तर भारत की क्रमिक विकासयात्रा की हकीकत का बयान करते हुए फेक नैरेटिव के मुकाबले विकल्प की तलाश में संघर्षरत स्वप्नशिल्पियों के प्रयासों का स्वप्नांकन करती है।
बहरहाल , यहां हम उपन्यास के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो बानगी के तौर पर उपन्यास – कथा की रूप – रेखा जैसे हैं । इस पर सुधी पाठकों की राय अपेक्षित है।
– हरि भटनागर

 

उपन्यास -अंश :

गाँव का नाम था तरौली। शहर के मुख्यालय से लगभग तीस-पैंतीस मील दूर, पश्चिम की तरफ बसा हुआ। भारत के लाखों गाँवों की तरह प्रकृति की कराह, विषमता, बेकारी-बेगारी और भ्रष्टाचार की छाप को जीता-सहता। वज्र देहाती मूर्खों और नवशिक्षितों के घालमेल से बना ठहरा-सा परिवेश। वर्तमान में टूट चुकी कच्ची-पक्की सड़कों से घिरा हुआ। आबादी लगभग तीन हजार के आसपास। इसी गाँव के एक मटियारी टीले, उजाड़ मंदिर और छोटे से जंगल की गोद में पंडित सत्यदेव नामक पुजारी कई साल से रहते हैं। दुबले-पतले, थोड़ा गाय की तरह लंबा चेहरा और माथे पर चंदनचूर्ण का टीका। एक देश जहां गाय, वानर, सर्प, सिंह आदि को लेकर राजनीति चलती हो, वहां चेहरे पर पशु की छाप देखना आम बात है। गाय जैसा चेहरा होना अच्छा माना जा सकता है। उसपर देवता की कृपा ढूंढी जा सकती है। इन्हीं पुजारी के मन में इधर पुरानी स्मृतियाँ बहुत आती थीं। जैसे चंचल तितलियाँ कभी-कभी झुंड में उड़ती हैं, वैसे ही झुंड में स्मृतियाँ आतीं। शीत, वसंत, ग्रीष्म और वर्षा से जुड़े दृश्य यदि धूमिल पड़ते, तो वे प्रयासपूर्वक कल्पनाओं में उन्हें जगाते रहते। बैठे-बैठे उनका मन पुराने समय में चला जाता था। भविष्य के प्रति उदासीन रहते थे, पर आज और बीते कल में एक साथ रहते। कोई नहीं कह सकता था कि वे केवल अतीत में रहते हैं। इसी तरह कोई नहीं कह सकता था कि केवल वर्तमान में रहते हैं। वे एकांगी न थे।

पुजारी के पास स्मृतियों का कोष था। गाँव का पुराना इतिहास जुबानी याद है। इतिहास जैसे उनकी स्मृतियों का अमृतजल पाकर किसी भी क्षण बेझिझक जी उठता था। शहर के इतिहासकार अगर इन जैसों के पास बैठें तो जिस वे ओरल हिस्ट्री कहते हैं, उसके कई ग्रंथ तैयार हो जाएँ। भूमि के रिकार्ड, अंग्रेजों-मुगलों की सियासत, जमींदारी का उदय-अवसान, लोकपर्व, संस्कृति सबके ग्रंथ जो उनकी स्मृतियों के पुस्तकालय में सुरक्षित थे। वे अवध के इस पिछड़े गाँव में आकर बसने के पूर्वजों के फैसले की आलोचना भी करते हैं। कहते हैं कि बसना ही था तो इस टूटे-फूटे, चमार-बहुल, ऊसर-बंजर गाँव में क्यों आकर बसे जहां जमींदार भी वैसे ही दरिद्र होने के लिए मजबूर थे जैसे उनकी रियाया। न सिंचाई के लिए नदी-नहर, न आसपास कोई तहसील-कस्बा।

लोगों ने बताया- ‘वहां तो एक हर-भरा टीला था जिसमें ढेरों वृक्ष लगे हैं। साल, पीपल, शीशम, महुवा, कमरख, शरीफा, खिरनी, जामुन..। कई साल पहले पुरखों ने वहीं आकर डेरा जमाया था, फिर बाद में इस जगह नया मकान बनाया। पुराने मकान का खंडहर अब भी वही हैं, घना जंगल भी। अब तो सांप-बिच्छू, नागों, खोहों में छिपे जानवरों के भय से दिन के समय भी कोई उधर नहीं जाता है।’

उनके चेहरे पर एक मधुर स्मिति दिखी और उस दिशा में ऐसे देखा जैसे उस ओर किसी देवता, अलौकिक शक्ति और परमात्मा का दर्शन होने वाला है। वहाँ शक्ति का निवास हो। परमात्मा की ऊर्जा बरस रही है जिसे वे एकत्र कर सभी को बांट देंगे। पर घर के लोग ही दबी जुबान से कानाफूँसी कर रहे थे कि जमीन कौन देगा इस तरह से!

उधर तरौली से सैकड़ों मील दूर एक युवक की हाँफती, गतिमय-गतिहीन होती, लड़खड़ाती दुनिया थी। वह अपने लिए निरंतर चुनौतियाँ ढूंढने के लिए धरती पर पैदा हुआ कोई अभिशप्त इंसान है और उसका नाम है देवदत्त। इस समय उसके ठीक सामने वाली मेज के दूसरी तरफ एक अफसर बैठा था जो ठंडे दिल-दिमाग का इंसान था। वो जिंदगी से शायद उकता गया था। नियमों से बंधे जीवन को जीते-जीते हर चीज से उदासीन सा हो चुका था। उसका शरीर मशीन की तरह अकड़ा हुआ था। इसे संभवतः अपनी फिटनेस का प्रमाण बताता होगा। वैसा ही संवेदनहीन-सा चेहरा। ऐसा चेहरा जो अब चेहरा होने के स्थान पर किसी दफ्तर के नियम-कानून, फाइल, कंप्यूटर आदि का रूप धारण कर चुका है। सामने रखे फाइलों के छोटे बंडल को उठाकर अगर उसके चेहरे की जगह लगा देते तो खास फर्क न पड़ता। या फाइल के ढेर में उसका चेहरा रख देते तो भी अंतर न आता। उसे बार-बार रुमाल से अपना माथा पोंछने की आदत थी, हालाँकि इतना पसीना उसे आ नहीं रहा था।

उसकी बात के अंतिम शब्दों को सुन देवदत्त के मन में अजीब सी जुगुप्सा पैदा हुई। ‘और फिर ब्यूटीफुल विमेन..’ में छिपे अर्थ को वह भाँप गया था। पर वह चौंका नहीं बल्कि अफसर की मूर्खता पर हँसी आई। किसी को नौकरी में बनाए रखने के लिए उसकी यौनकामनाओं को सहलाने का उसका तरीका उसे मजेदार लगा। कुछ देर पहले तक उसे हर चीज ऊबाऊ और ठहरी हुई लग रही थी, जैसे शीतप्रकोप से उजड़ा बगीचा हो। निष्प्रभ, सूखा और उदास। लेकिन इस बात ने उसे थोड़ा हल्का महसूस करा दिया। पिछले दिनों ही उसने सुना था कि नेवी में पत्नियों की अदला-बदली जोरों पर हैं। वाइफ-स्वैपिंग…। इसके अतिरिक्त भी विभिन्न किस्म के यौन-अपराध और नौकरियों के समझौते। उसने मन ही मन सोचा कि वह आगे चलकर कभी सेक्स और सेना के संबंधों पर कोई लंबा लेख लिखेगा। उसमें सैन्यबल व सेक्स के संबंधों को लेकर मर्दों के मन में मौजूद प्रबल उत्साह पर लिखेगा। सेनाओं के लिए विशेष वेश्यालयों का निर्माण करना सामान्य बात रही है। विभिन्न देशों व विजित इलाकों में यौनदासताओं को जन्म देना सैन्य इतिहासों का हिस्सा बना। जापान की ‘इआनफू’ के बारे में उसने पढ़ा था, यानी ऐसी स्त्रियां जो जापानी सैनिकों के लिए कमफर्ट वूमेन की तरह हजारों की संख्या में जुटाई जाती थीं।

वह सोचता तो सोचता चला जाता। बिना रुके और थके.. विचारों का धुआँधार आवेग। वह सोचता कि युद्ध.युद्ध..युद्ध और उसकी हर समय चलने वाली सैन्य तैयारियाँ। परमाणु युद्ध, केमिकल वार और हवाई हमलों जैसी अमानवीय बातों से भरी दुनिया। अब तो ‘आटोमेटेड बैटलफील्ड’ का युग आ गया है जिसमें रोबोट, कंप्यूटर, एआई और ड्रोन आदि ही युद्ध लड़ेंगे। तब मानव-देह वाले किसी सैनिक के निजी पराक्रम व देशभक्ति का क्या अर्थ बचेगा!

‘बहुत अच्छा..बंबई में रहोगी तो और अक्लमंद हो जाओगी।’

‘मैं अक्लमंद होने नहीं पढ़ाई करने जा रही हूँ। महानगर किसी को अक्लमंद नहीं बनाते, बस आत्मविश्वासी और व्यवहारिक बना देते हैं। वैसे तो बड़े शहर में जाना नहीं चाहती। वे हमारे जीवन के ऊपर बहुत सारा बोझ व्यर्थ लाद देते हैं। पर हमने आसपास के अच्छे संस्थान बर्बाद कर इन मझोले कहे जाने वाले शहरों को भी बर्बाद कर दिया है। अब हमारे सपने केवल विस्थापन को बढ़ा सकते हैं और विस्थापन ही सपनों को आश्रय देते हैं। हम सब विवश हैं…अपने-अपने ढंग से…कहीं दूर जाने और अपनी जड़ों से कट जाने के लिए।’

कुछ दिन के इस आलस के बाद उठा तो उसे लगा कि फिर ऊर्जा लौट रही है। वह फीनिक्स पक्ष है, जिसके पास अपनी राख से जी उठने का गुण है। पर इस गुण का वह दुरुपयोग भी करता है। बेहद वाहियात दुरुपयोग। इसी के कारण स्वयं के प्रति कठोर हो जाता है। हर बार राख में अपने को बदलने की कोशिश करता है ताकि वह फिर से जी सके। वह एक ही जन्म में बार-बार के पुनर्जन्म को संभव बनाना चाहता है। फीनिक्स पक्षी की कथा में अपना अनुभवजन्य सत्य जोड़कर जो अर्थ मिला, उस सत्य को ही पाकर अपने ऊपर हँसी आई।

..

संतोष भाई ने उन्हें ऐसे घूरकर देखा जैसे गरुण पक्षी छोटे सांपों को देखता होगा। फिर इस अंदाज से बोले जैसे किसी ऐसे मुद्दे पर उन्हें बोलने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसे वे बहुत तुच्छ मानते हैं। दरअसल वह दुनिया की हर उस चीज को तुच्छ समझते थे जो उनके स्वार्थों के अनुकूल न हो। जिसके लिए इंसान और धंधे के बीच ही केवल अटल-अटूट संबंध हो सकते थे और इसके आगे मानव और समाज, आत्मा-परमात्मा, सांस और देह, प्रकृति-पुरुष जैसी सारे अटूट रिश्ते बेमानी थे। वे रतनलाल की बात को अनसुना कर थोड़ा बेतकल्लुफी से देवदत्त से बोले-

‘आपने यह भूरा कोट कहाँ से खरीदा गया है। पुराना हो गया है पर आप पर जँच रहा है। लेकिन अगर कोट के साथ-साथ आपके सिर पर पनामा हैट होता तो और अच्छे लगते।

संतोष भाई को शायद यह बात चुभ गई। उनकी आवाज में अब थोड़ा गुस्सा भर गया। गुस्से से भरी तीखी आवाज में बोले- ‘जो फैक्ट्री हम चला रहे हैं, वह गाँव की जमीन पर नहीं है। बाकी हम सारा टैक्स भरते हैं और हर बार निरीक्षण करवाते हैं। हमारे पास सारे अनुमति पत्र हैं। सारे नियम-कानूनों की मार सहकर भी फैक्ट्री चला रहे हैं, देश के कल्याण के लिए। आप लोग तिल का ताड़ बना रहे हैं। राजनीति में मत पड़ें, हम भी नहीं चाहते हैं कि राजनीति से निपटने के लिए हमें भी राजनीति का सहारा लेना पड़े।’ बातों में गर्मी आने लगी। ऐसा लगा कि सब तैश में आ चुके हैं।

इस बार देवदत्त बोला- ‘फैक्ट्री आपके द्वारा खरीदी जमीन पर है पर धरती के हवा-पानी पर उसका पूरा हक नहीं है। आपने हवा और पानी को नष्ट करने का अनुमति पत्र नहीं हासिल किया होगा, न इसके लिए रजिस्ट्री कराई होगी।

‘मैं तुम्हें थोड़ा टोकूंगा। तुम्हें नहीं लगता है कि तुम्हारे मन पर गाँव ज्यादा हावी हो रहा है जोकि खुद में नष्ट होती सभ्यता है।’

‘भारत के संदर्भ में यही हमारे सबसे बडी भूल रही है। गांवों को नष्ट होती सभ्यता मानकर हम स्वयं को और देश को नष्ट कर डालेंगे। वैसे भी किसी भी चीज को केवल नष्ट होने वाला बताकर पलायन नहीं किया जा सकता। भविष्य में तो सब नष्ट हो जाएंगे। मैं, आप, ये समाज, धर्म, परंपरा, शहर, पृथ्वी सभी कुछ। इसलिए जो चीजें अभी जीवित है, हमारा उसके प्रति दायित्व अवश्य है।

‘हां शायद ही कोई चित्रकार होगा जिसने प्रकृति को रंग-रेखाओं में न ढाला हो। प्रकृति हमसे बड़ी चित्रकार है और उसकी चित्रकला से सामने मनुष्य की प्रत्येक कला अधूरी। कई बार तो निरर्थक। मेरे अंदर का चित्रकार भी तभी पैदा हुआ था जब मैंने पूर्वोत्तर की एक छोटी सी जगह में हाथियों के झुंड को तेज बारिश में भागते देखा था, अनोखा और वन्यसौंदर्य से भरा जीवन..। अब मैं पत्तियों के शांत ढंग से झरने में भी प्रकृति का स्पंदन महसूस करता हूं। हर पत्ती, फूल, तितलियों की शरारत, पराग-कण, सुगंध और बूंद के माध्यम से इस पृथ्वी में अपने होने को महसूस करना ही तो जीवन है। अपनी कल्पनाओं में मुझे खूबसूरत औरत की जांघ और वक्ष के साथ-साथ पेड़ का तना, घाटियों की गहराई भी लुभाती है।’

अमन ने जब यह बात कही तो देवदत्त के सामने गाँव की दृश्य घूम गया। प्रकृति के विषयों से जुड़ी चित्रकला और उसपर चतुर्दिक मंडराते स्याह धुएँ का आवरण गिरना। अनाहूत, अनिमंत्रित का असित पक्ष।

देवदत्त की फाइनल की परीक्षाएँ हो चुकी थीं और अब लंबे समय के लिए किसी अनजान जगह पर रहना चाहता था। उसके उपरांत घर जाना चाहता था। इन दोनों जगहों पर जाने से पहले एक दिन वह फिर प्रोफेसर चटर्जी के पास गया था। उन्होंने ही उसे बुलाया था और आगे की पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ निर्देश दिए थे। आज उनके घर में उनके प्रिय शिष्य श्यामनारायण के स्थान पर उनकी दो छात्राएँ मालिनी और विशाखा मौजूद थीं। श्याम की तरह ही ये दोनों भी प्रोफेसर की पक्की भक्तिनें मानी जाती थीं। मजाक में लोग कहते थे कि प्रोफेसर साहब ने दो जनसंपर्क अधिकारी रखे हुए हैं जो उनके हर लेख, भाषण या पुस्तक का सोशल मीडिया से लेकर गोष्ठियों तक में प्रचार करती हैं। प्रोफेसर चटर्जी का मानना था कि लड़कों की तुलना में लड़कियों से कराया आत्मप्रचार ज्यादा प्रभावी होता है। एक तो लोग लड़कियों की पोस्ट ज्यादा पढ़ते हैं, दूसरा उनसे प्रचार कराने में छवि अच्छी बनती है। किसी भी प्रोफेसर को विद्वान होने के साथ-साथ थोड़ा रोमाँटिक दिखना चाहिए। इस रोमांटिक छवि को बनाने में लड़कियों की प्रशंसाएँ बहुत प्रभाव डालती हैं।

सत्यदेव ने एक गहरी साँस ली और बोले- ‘हिंदू धर्म को तुम लोग नहीं जानते। यह धर्म जितना मूर्ति में ईश्वर को देखता है उतना ही मूर्ति और खोखले कर्मकांड के बाहर ईश्वर को देखता है। जितना संतो-महात्माओं को पूजता है, उतना ही एक मामूली पत्थर और पेड़-वनस्पति को पूजता है। जितना साकार है उतना निराकार। जितना दलन-दमन में है, उतना प्रेम-करुणा में। जितना अवतार में है, उतना मनुष्य में। जितना मंत्र में उतना मौन में। जितना त्रिमूर्ति में उतना साधारण जीव में। जितना राजा में, उतना प्रजा में। जितना मुकुट में, उतना दारिद्रय में। मत भूलो कि संतोष भाई जैसे लोगों के द्वारा शराब बेचकर कमाई गई संपत्ति पर यह धर्म नहीं खड़ा है, बल्कि लाखों लोगों की सच्ची आस्था पर खड़ा है।

शेरोन की कहानी भी अजीब थी। वह इंग्लैंड में पली-बढ़ी, पढ़ाई की पर इंग्लैंड के बाहर भटकती रही थी। यूरोप के शहरों में, फिर भारत और उसके पड़ोसी मुल्कों में। उसके चेहरे पर कई संस्कृतियों की छायाएँ और छाप थी। कुछ साल इटली के शहर फ्लोरेंस में वह कला-वीथिकाओं और संग्रहालयों का अध्ययन करती रही। वहां उसका एक दोस्त बना जो पोलैंड का था और उक्रेनियन भाषा बोलता था। उस दोस्त के दादा दूसरे विश्वयुद्ध में जिसमें नाजियों के हमले में पचास लाख से ज्यादा पोलिश मारे गए थे, वे भी मारे गए। वह एक साथ ही जर्मनों और रूसियों से घृणा करता था। जर्मनों ने उसके देश पर बर्बर हमला किया था और रूसियों ने दूसरे महायुद्ध के बाद लंबे समय तक पोलैंड पर अपना कब्जा रखा। शेरोन का वह दोस्त बाद में मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गया और अपना ईलाज कराता रहता था। लोगों ने बताया था कि विक्षिप्तता का यह रोग उसे पिता से मिला था जिन्हें रूसी सेनाओं ने कोयला खान में काम करने के लिए मजबूर किया और लंबे समय तक बंधक बनाकर रखा था। उसके पिता पोलिश वर्कर्स पार्टी के सदस्य थे जिसे रूसियों का समर्थन मिला हुआ था, लेकिन उन्हें किसी अमेरिकी के लिए जासूसी करने के संदेह के कारण कैद कर लिया गया था।

शेरोन को अपने पोलिश प्रेमी के रूप में एक अच्छे दोस्त को खोने का दुःख था। उसने अपने को उससे दूर तो किया, पर उससे जुड़ी भी रहती थी। फिर फ्लोरेंस से बाहर आकर वह लगभग नौ महीने तक अमेरिका के फिलाडेल्फिया शहर में घूमती रही और वहां के पुराने चर्च, मेंसन और घरों के स्थापत्य पर नोट्स लेती रही। वहीं से उसे भारत आने का निमंत्रण मिला क्योंकि भारत के पुराने ऐतिहासिक स्मारकों पर प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ को कुछ विशेषज्ञों की तलाश थी और शेरोन को मौका मिला।

शराब फैक्ट्री लगभग ठप थी, वहां काम करने वाले लोग बाहर जमावड़ा लगाए रहते थे। उनके बीच भी दो मत के लोग थे। कुछ ऐसे थे जो गाँव के लोगों खासकर अरुणा, रतनलाल, पुजारी सत्यदेव, मास्टर स्वरूप, महेंदर पासी, सुक्खी आदि से नाराज थे और उन्हें लगता था कि संतोष भाई से इतना बिगाड़ ठीक नहीं। सांड़ से टकराने से किसी की जीत नहीं होती। वे इतनी जल्दी तो फैक्ट्री बंद करेंगे नहीं। कुछ दिन बंद रहने के बाद फैक्ट्री खुल गई तो कोई लाभ नहीं। वही ढाक के तीन पात वाली दशा होगी। पर फैक्ट्री में ही काम करने वाले कुछ लोग थे जो भीतर ही भीतर प्रसन्न थे कि संतोष भाई को ललकारने वाले लोग तो सामने आए। वरना इस फैक्ट्री में इतनी तानाशाही है कि बिना दो-दो महीने की तनख्वाह मिले भी लोग मजबूरन घिसटते रहते हैं।

इस तरह संतोष भाई ने हिंसा के मिथ्या चित्रों में मामूली ग्रामीणों के चेहरे भरकर खुद को बचा लिया। जिस विरोध से उनका नुकसान हुआ था, वही अब उनके पक्ष में था। लोगों के बीच का भाईचारा भी उनके हाथ में था, जिसे जब चाहे वे नष्ट कर सकते थे और जब चाहे उसकी हिफाजत के लिए घड़ियाली आँसू बहा सकते थे। वे अक्सर एक अपने उद्योगपति दोस्त से कहते थे कि भाईचारा समाज की चीज नहीं है। केवल अपने फायदे-नुकसान के लिए होना चाहिए। लोगों की एकता हमारे स्वार्थ से बड़ी नहीं। वे देश को आम जनों से बड़ा मानते, पर देश से बड़ा अपने जैसे लोगों को मानते। वे बहुत बुरा आदमी होने के सारे लाभ उठाते थे और मौका पड़ने पर सबसे नेक इंसान की तरह दिखने लगते थे। लोग अब भी फैक्ट्री को समस्या मानते थे, उसे मन ही मन शाप देते थे लेकिन धीरे-धीरे शाप देना तक भूलने लगे। वे इतना निराश थे कि कोसने, निंदा करने, शाप देने को भी निरर्थक समझते थे।

फिर एक शाम लिखी गई देवदत्त की डायरी का एक पन्ना, भाव-वाष्प से ग्रथित एक-एक अक्षर कुछ यही बात कह रहा था- ‘’सभ्यता व समाज के केंद्र में कई बार कोई दुष्ट तर्क स्थापित हो जाता है जो मनुष्य की नियति को न केवल कष्टपूर्ण बनाता है बल्कि वह कष्ट उत्पन्न करने वाले बहुत सारे तर्कों को किसी मशीनी गति से जन्म देता है। वे दुष्ट व अमानुषिक तर्क (evil logic) सभ्यता-समाज के केंद्र में इतने गहरे तक धंसे होते हैं, कि मनुष्य उसे पहचान ही नहीं पाता और लगातार अपने आचरण से उसे ही पुष्ट व मजबूत करता चला जाता है।



वैभव सिंह

जन्म : उन्नाव, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक। फिर पीएच.डी. तक की शिक्षा जेएनयू, नयी दिल्ली से।
प्रमुख कृतियाँ : ‘इतिहास और राष्ट्रवाद’, ‘भारतीय उपन्यास और आधुनिकता’, ‘शताब्दी का प्रतिपक्ष’, ‘भारत : एक आत्मसंघर्ष’, ‘कहानी : विचारधारा और यथार्थ’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर : उपन्यास, स्त्री और नवजागरण’, ‘जवाकुसुम’ (कहानी-संग्रह)।
इसके अतिरिक्त टेरी ईगलटन की पुस्तक का अनुवाद ‘मार्क्सवाद और साहित्यालोचन’ तथा पवन वर्मा की पुस्तक का ‘भारतीयता की ओर’ के नाम से किया।
सम्पादन : ‘अरुण कमल : सृजनात्मकता के आयाम’, ‘दिव्या : एक पुनर्पाठ’, ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर : विचार का आईना’ (टैगोर के निबन्धों का संचयन)।
सम्मान : ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान’, ‘शिवकुमार मिश्र स्मृति आलोचना सम्मान’, ‘स्पन्दन आलोचना सम्मान’, ‘वनमाली कथालोचना सम्मान’। हिन्दी अकादमी, दिल्ली की कार्यसमिति व गवर्निंग बाडी के सदस्य रहे कार्यक्षेत्र : मीडिया-संस्थान, विश्वविद्यालय।
कार्यक्षेत्र : मीडिया-संस्थान, विश्वविद्यालय।

 


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