तरुण भटनागर हिंदी कथा के नौवे दशक के बाद की पीढ़ी के सबसे प्रतिभाशाली कथाकार हैं। चार उपन्यास जिनमें एक शीघ्रप्रकाश्य है तथा कई कथा संग्रह तरुण के छप चुके हैं जो पाठकों के बीच भारी चर्चा के साथ उनके हृदयों में बसे हैं।
दादी , मुल्तान और टच – एण्ड – गो – तरुण की बहुत ही महत्त्वपूर्ण और बेचैन करने वाली कहानी है। सरसरी तौर पर पढ़नेवालों के लिए यह एक महज़ भावोच्छवास होगी लेकिन विस्थापन की यह ऐसी कहानी है जो मंटो ,भीष्म साहनी के बाद सिर्फ़ तरुण की क़लम से पूरी शिद्दत से रूप पाती है। कह सकते हैं , तरुण विस्थापन की पीड़ा में ऐसे एकमेव हो जाते हैं जिससे महसूस होता है कि वे भोक्ता हों। यह कहानी दादी की कहानी है जो मुल्तान में पैदा हुईं और वहीं के खाद- पानी से पली – बढ़ीं। दादी की बचपन की सहेलियां , उनका पास-पड़ोस दादी के वजूद से अलग नहीं हैं। कह सकते हैं , मुल्तान शहर को जीती हुई दादी ख़ुद मुल्तान शहर हो गई हैं जिसे वे शहर से उखाड़ दिए जाने के बाद भी पल भर को भी बिसरा नहीं पाईं। कौन सी सियासत है जो आदमी के बीच लक़ीर खीच के आदमी को आदमी से अलग कर रही है- दादी दुनिया में किसी का घर नहीं छूटता सिवाय औरत के इस सवाल से जोड़ कर भारत पाक विभाजन को मंसूख करती हैं जैसे टोबा टेक सिंह। यह कहानी विस्थापन के नकार की कहानी है जो नई पौध को विभाजन को अस्वीकार का संदेश देते हुए इंसान को इंसान समझने की सीख देती है।
बहरहाल , बहुत सी बातें जो लिखी नहीं जा सकतीं, सिर्फ़ महसूस की जा सकती हैं। विश्वास है, सुधी पाठक कहानी को पढ़ेंगे और उसके मर्म को महसूस कर साझा करेंगे साथ ही 24 सितम्बर ,जन्मदिन पर तरुण को हमारे साथ मंगलकामनाएं और शुभाशीष देंगे।
– हरि भटनागर
कहानी:
उस शहर की स्मृतियाँ थीं। कई। मानो किराये पर हों। बेगाने हक वाली। हमें पता न जैसे, कि हम इनसे बेदखल कर दिये जायेंगे, एक दिन।
बचपन के किसी कोने में इकट्ठा हैं वे अब भी। रेस कोर्स का छोटा घास का मैदान है जहाँ हम शाम को खेलते थे। रिक्शे में माँ और बुआ के बीच धँसे हुए, न जाने कहाँ तो जाते हुए। गंदे नाले के किनारे-किनारे। एक पार्क था जहाँ पहले क्वीन विक्टोरिया की मूर्ति थी। बुआ ही बताती थीं कि आज़ादी के बाद उसी जगह गाँधी की मूर्ति लगा दी गई थी। कोई टाकीज जिसमें उस दिन राजेश खन्ना की बावर्ची फिल्म लगी थी। उन दिनों की सुपर हिट। उस दिन की हाउस फुल। इतनी कि हम बैरंग लौट आये थे। एक था दशहरा मैदान। मेले की जगह। जहाँ से मेघनाथ के टूटे हाथ पर चीखती, विलाप करती किसी औरत का रोना आज भी सुनाई देता है। समय के उस पार से। कोई भीड़-भाड़ वाला चैराहा। नाम साठा। उसके दो तरफ फैली एक पीली इमारत, हलवाईयों, पनवाड़ियों, पतंग बनाने वालों, चूड़ी बेचने वालों, दर्जी, खोमचे वालों, चाकू, कैंची की धार तेज करने वालों, … न जाने कितनी छोटी-छोटी दुकानों को पनाह देती हुई। बुआ उसे देखती रहती। कभी बताती कि उसका बचपन यहीं बीता था, कि यहाँ चक्की थी और वहाँ एक अमीरज़ादे की सोने-चाँदी का तार खींचने वाली दुकान। कि जब चक्की चलती तो पूरा मकान धड़धड़ाता। कि एक तंग गलियों वाला मोहल्ला है। नाम ईंटारोढ़ी। कुछ दिनों बाद हम वहाँ रहेंगे। नये मकान के नाम पर हम खुश होते। नये मकान के नाम पर बुआ के चेहरे पर उदासी दिखती।
उत्तरप्रदेश का एक शहर है बुलंदशहर। बेतरह छूटकर भी, वह कभी पराया नहीं हुआ। कहीं कुछ बाकी है, खुरण्ट की किसी पपड़ी सा। नाखून से कुरेदकर कहीं कुछ जो हमेशा रहे। शायद। यह शहर बाबा और दादी का शहर था। पिता और बुआओं के किस्सों और बचपन की यादों ने इसे यही नाम दिया। बुलंदशहर याने बाबा और दादी। फिर जब बाबा मरे, यह शहर हमेशा के लिए छूट गया। दादी को वह जगह छोड़नी पड़ी। वह हमारे साथ चली आई। उस शहर में वह अकेली ही थी। उस शहर में उसे अपना अकेलापन छोड़ना पड़ा। दादी ने उस अकेलेपन को एक नाम दिया था – ‘उनके (याने बाबा के) साथ बीता समय’। दादी कहती वह औरत जो है। औरत को हर छत छोड़नी पड़ती है। ऐसी तमाम छतें जिसे वह अपना कह देती है। कभी कोई ऐसी छत, जिसे अपना कहने का उसका मन करता है। यह औरत का दुस्साहस है, कि फिर भी वह किसी शहर या मकान को अपना कहती रहती है।
बुलंदशहर उसकी दूसरी छत थी। पहली छत याने उसका मायका, पिता का घर। दादी की पहली छत मरते तक उसकी पसलियों पर चिपकी थी। उसके मरने के बाद वह हमारे मकान की दीवार पर चिपक गई। अब भी दिखती है। हमेशा। रोज। बिल्कुल सामने। बरसों पहले वह मकड़ी होकर दीवार पर जाल बनाकर बस चुकी है। दादी बताती, कि मकड़ी का जाला, जाला नहीं है, वास्तव में वह घर है। मकड़ी का घर। जाला याने दादी की पहली छत।
बात – बात में यह पहली छत होती। भले ज्यादातर बातें उसने हमें पहले से बताई होती। मुताबिक दादी, उसके पास बताने को अब कुछ बचा ही नहीं था। बताने को कुछ भी नहीं था, फिर भी वह बताती। हमें पता होता कि वह क्या बतायेगी। हम कहते कि अब आगे यह होगा, कि वह होगा, लोगों सुनो, घर के सब लोग सुनो, आगे की खबरें, कि दादी अब यह बात बतायेगी, बात इस तरह है कि…। हम दादी की बातों की साइकिल चलाते। ट्रिन- ट्रिन …तो बात यह है, कि। दादी चिढ़ जाती। हमारा जब चुहल करने का मन करता, तो हम उस पहली छत की बात छेड़ देते – बताओ न दादी, बताओ। दादी की आँखें चमक जातीं। वह अपना काम एक तरफ सरकाकर हमें यूँ बताती जैसे पहली बार बता रही हो। उसे हमारी चुहल समझ नहीं आती। फिर जब हम एक साथ हँस देते…. दादी का मुँह खुला रह जाता। वह लुटी-पिटी हमें टुकुरती या ‘ अरे हट ’ कहकर हम पर हाथ से झलने वाला पंखा फेंककर मारती। वह बात हमेशा से किसी मजाक या हँसी की तरह ही रही, जब तक कि वह वाकया नहीं हो गया।
‘महाभारत।’
‘हम इसे रज़्मनामा कहते थे।’
‘क्योंकि यह उर्दू में था। है न दादी…।’
‘हाँ पुत्तर… उधर उर्दू ही थी। एक और थी सेरैकी। हिन्दी तो इधर की ज़बान ठहरी। इधर ज्यादा है। हमारे तरफ नहीं। फिर उर्द़ु और हिंदी कितनी तो एक सी हैं। भले इधर और उधर लगती हों, तब भी।’
मुल्तान। पाकिस्तान का एक शहर।
दादी मुल्तान को तब भी अपना मुल्क़ कहती। बंटवारे के कई सालों बाद भी। हम उसे चिढ़ाते कि दादी तो फिरंगी है, दूसरे मुल्क़ की…। कि दादी ठेठ परदेसी है। एक बिल्कुल बाहरी चीज की तरह। हमारे बीच दादी को लेकर तरह-तरह के किस्से थे, जैसे दादी की आँखें नीली हैं, पर उसने उस पर काला लैंस चढ़ा लिया है। वह विदेशी जो है। फिरंगन। परदेसन। कि दादी एक न एक दिन अपने मुल्क़ चली जायेगी। कभी किसी रात जब हम सो रहे होंगे, तो दादी उठेगी और चुपके से घर से निकल जायेगी। यह बात इतनी सच लगती थी कि मैं अक्सर रात-बेरात खटका होने पर खिड़की का पर्दा हटाकर घर के मेन गेट को ऊंघता टकटकाता। क्या पता दादी हो ? क्या पता सबको सोता जानकर चुपचाप जा रही हो वह ॽ न जाने क्या तो होगा अगर वह सचमुच चली गई तो ॽ
‘दरअसल उर्दू भी उतनी नहीं थी। उधर के लोग सेरैकी बोलते थे। बड़ी मिठ्ठी ज़बान है। बड़ी सोनही। ’
‘मिसरी जैसी…।’
आगे की बात हम पूरी करते। यद्यपि किसी ज़बान का मिसरी होना बड़ी बौड़म सी बात लगती। अजीब। अबूझ सी। जाने क्या मतलब है इसका – बड़ी मिठ्ठी ज़बान। पर टेपरिकार्डर की तरह हमें पहले से पता होता कि दादी अब क्या कहेगी…। दादी के किस्से, हजारों बार के सुने किस्से जो थे। वही बातें, बिल्कुल वही, एकसी।
‘बलूचकी, जगदाली, बहावलपुरी, थलोची… और भी कई किसम की सेरैकी…। मुल्तान की ज़बान सेरैकी।’
‘… डेरावाली, मुल्तानी, शाहपुरी…’
‘हाँ वही पुत्तर, वही।’
सेरैकी की तारीफ कर दो और दादी की कही बातें दुहरा दो, तो दादी अपने पिटारे में से मुरब्बा या गटागट खाने को देती..। हमें पता होता। सो इस बोर और बेहद बेजान सी बात को भी मुरब्बे और गटागट के लालच में हम चहककर कहते…। दादी की आँख में झाँककर कहते। सेरैकी सचमुच मीठी ज़बान थी। भले वह कहीं दूर-पार के मुल्तान की थी। पर वह मुरब्बा और गटागट थी।
‘मुल्तान के गली – कूचों में हम गिलहरी की दौड़ दौड़ते। रानी, शब्बो, काफी, ज़ाहिदा, मुन्नी…। रोज शाम घर के पल्ली तरफ गिट्टा खेलने इकट्ठा होतीं…। मुल्तान में डेरा अड्डा से शेरशाह वाली रोड पर ही तो था, हमारा घर। नादिराबाद में। कच्चा फाटक से लगा हुआ… बस वहीं पर।’ – इस तरह कहती वह मानो हम उस घर को ढूँढ सकते हैं, आज भी। किसी नादिराबाद में। भले यह सब किस्से से ज्यादा कुछ भी नहीं लगता, तब भी।
कभी ख़्वाबों में दिखता था दादी का मकान। लकड़ी का नुकीली कीलें ठुका दरवाज़ा…। घर के भीतर से उठकर पूरी गली को पार कर जाने वाली दादी की अम्मा की आवाज़ – ‘ बंटो जरा सुन तो…किधर चली गई।‘ ख़्वाब में था गेरू के पत्थर से लकीर खींचकर बनाया गिट्टा। घर के आँगन में। दस खाने और चार समुंदर वाला…।
कई बार माँ दादी को कहती- ‘ ये क्या बताती रहती हो, बीवी जी। कुछ इनकी पढ़ाई लिखाई का ही बता दो। आपकी तो अंगरेजी भी अच्छी है। पिछली बार काकू के कितने कम नंबर आये थे। ’
माँ कभी-कभी पिता को कहती, कि वे उनको बोलें, कि रोज के मुल्तान के एक से टेपरिकार्डर की बजाय बच्चों को कुछ पढ़ा ही दें। पिता कभी कदास अनमने ढ़ंग से कह भी देते। फिर उल्टे माँ को ही समझाते, कि अम्मा तो ऐसी ही है… वो तो पिताजी से भी यही बातें कहती थी। अक्सर। फिर उनके पिताजी याने हमारे बाबा, उनका मजाक बनाते – ‘क्या पराये मुल्क का ढ़िंढ़ोरा बजाती है, रोज की एक सी फटीचरी कनखटी बात…। कभी तो कुछ और भी बताया बोला करे। हर वक़्त बस मुल्तान…। बस पाकिस्तान।’
पिता बताते जब वे छोटे थे, तब वे सब दादी पर हँसते थे। पर दादी नहीं बदली। तमाम हँसी-ठिठोली, उलाहना और लोगों से कंझा जाने के बाद भी, वह बात वह कहती रही। पूरे मन से कहती। डूब – डूबकर। बिना किसी चिंता के। लोगों की हँसी से बेफिक्र। उलाहना से बेपरवाह। उसे नहीं समझना कि बरसों बाद भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के कई सालों बाद, मुल्तान की घिसी पिटी बात एक फसाने से ज्यादा कुछ नहीं। एक बात मज़ाक बनाने को। बिना जाने बूझे की ही, ही, ही…। पर हर बात के बाद भी कुछ न बदला था। उसने भरे हुए चेहरे के साथ कहना ही था। बार – बार। सबसे ज्यादा बार। बस मुल्तान ही बात। पिता कहते कि अम्मा ने सारा जीवन कहा, अब बुढ़ापे में भी कुछ बदलेगा क्या? …वे सही थे। दादी कभी भी बदलने को न थी।
कभी दादी जवाब देती – ‘ कुल जमा यही बातें तो हैं मेरे पास। या तो पीहर या ससुराल। याने मुल्तान और बुलंदशहर…। याने दो समय के दो घर। पहला पिता का और दूसरा खसम का। बता तीसरा घर मैं कहाँ से ले आऊँ। तीसरी कौन सी जगह की बात मैं करूँ।’ कभी गुस्से में कहती – ‘ औरत पर बात करने को क्या होता है ? घर की चिक्क-पिक्क और छुटपन की यादों के अलावा। बहू को ही लो। कौन सी अनोखी बात करती है। दिल्ली के विल्सन स्क्वेयर वाला घर और यह घर, इसके अलावा और क्या। बोलो। ’
सो दादी सबकुछ सुन ले, मान ले…। पर जहाँ कोई कहे कि मुल्तान की बात न करो, तो वह एकदम से गोल गाँठ हो जाये। चाहे जितना मर्जी चिढ़ा लो, जितना मर्ज़ी मजाक बनाओ, जो करना है करो… पर यह मत कहो कि मुल्तान की बात मत करो। वह एकदम से गुस्सा हो जाती। कभी एकदम से चुप भी। धीरे-धीरे मेरे सामने एक राज़ खुलने लगा। एक अजीबोगरीब बात।
दादी के कमरे में मुल्तान हर जगह था। बहुत सारी चीजें। बहुत सारा मुल्तान। एक पुरानी उर्दू की किताब थी। स्कूल की किताब। जिसके एक अधफटे पन्ने के पीछे पेंसिल से बिंदु मिलाकर चैखट्टे बनाने वाला खेल था। अधूरा छूटा हुआ। अडु़सठ साल पहले दादी और शब्बो ने इसे खेला था। पर अब यह तार-तार था। दादी मानती इसमें से आज भी शब्बो की खुशबू आती है। अगर यह खेल पूरा होता तो दादी जीतती… देखो,देखो, दादी के ‘आर’, शब्बो के ‘एस’ से कितने ज्यादा हैं।
उसको मुझ पर बड़ा भरोसा था। सबसे ज्यादा। इसी वजह से उसने मुझे धीरे-धीरे अपना पूरा मुल्तान दिखाया था। वह कहती दूसरों का क्या है, सब मजाक बनायेंगे। फिकरे कसेंगे। कहेंगे कि बुढ़िया तो पागल है। ताजि़ंदगी की पागल। बँटवारे के पहले की पागल। भारत और पाकिस्तान से पहले की पागल। आज भी उस पागलपन को अपनी छाती से लगाये है। चलो कहना तो तब भी ठीक है। बातों तक तो ठीक है। वैसे भी वह भी किसकी सुनती है। क्यों सुन ले वह सबकी ॽ वह घर में सबसे बड़ी है। उसकी बात भी उतनी ही अहमियत रखती है। मुल्तान की बात को भले सब लोग उसकी रोज की दाल-रोटी कहते हैं, पर वह घर के सबसे बड़ बुज़ुर्ग की बात है, यह भी ख़याल रखें वे सब।
पर मुल्तान की चीजों को आज तक संभालकर रखना ॽ उसका क्या ॽ वह भी तुच्छ किस्म की चीजें को ? दादी को भटकता सा डर लगता। लगता कि कहीं पता चलने पर लोग उसके कमरे से मुल्तान को निकाल न फेंके। कूड़ेदान में न डाल दें। खासकर उसका बेटा और बहू। उसने एक बार मुझसे कहा था, कि जो लोग मुल्तान की बात से ही चिढ़ते हैं उन्हें तो उसके कमरे का मुल्तान फेंक ही देना है। पुरानी चीज़ें वैसे भी कूड़ा सी दिखती हैं। उसे खुद ही नहीं पता कि वह क्यों नहीं इस अल्लम-टल्लम को फेंक पाती है। वे चीजें जो बेहद साधारण हैं। इतनी साधारण कि उन्हें संभाल कर रखना अजीब लगता है। वह भी बक्से में। चाबी में बंद कर। उनके इस तरह से टिके होने की कोई वजह नज़र न आती थी। कभी वही कहती ,बुझती हुई सी – ‘ बेवजह है सो टिका है, वजह होती तो वह खुद न फेंक देती।’
अखरोट की लकड़ी की एक टूटी-फूटी पिटारी जो वह अपने पिता के साथ मौलवी की दरगाह के पास से उन्नीस सौ बत्तीस में खरीद लाई थी। इसी में दादी की माँ कटी सुपारियाँ रखती थी। बरसों तक। मुल्तानी मिट्टी की दो पट्टियाँ, जो बकौल दादी ओरिजनल मुल्तान की ही हैं। दो पुरानी तस्वीरें जिन्हें बाद में उसने जतन से लैमिनेट करवाया था। पहली मुल्तान की किसी चमनज़ार-ए-अस्कारी नाम की झील की। माँ और पिता के बीच ब्लाउज़-घाघरा पहने खड़ी एक लड़की, याने दादी। दूसरी कंपनी बाग में तीन लड़कियों -दादी, शब्बो और जाहिरा की। दादी कहती उसकी चोटी सबसे मोटी और लंबी थी। क्लास की सारी लड़कियाँ उससे इस बात पर रश्क खातीं।
बासठ साल पुरानी बात। लालाराम हलवाई की दुकान के सोन हलवे का टीन का डब्बा। जिसमें उर्दू में जाने क्या-क्या लिखा था। जिसे दादी पढ़कर सुनाती। रज़्मनामा की वह पुरानी फटी-बिखराती किताब भी जो उन दिनों मुल्तान की किसी बारादरी से उसकी माँ खरीदकर लाई थी। जब दादी ने पढ़ना सीख लिया तब वह इसे पढ़कर माँ को सुनाती थी। इस किताब को सुन देखकर दादी की माँ की आँखें भर-भर आती थीं…….। एक भर्रू। एक पीतल का छोटा ताला। पाँचवी दर्जे की स्कूल की मार्कशीट। पुराने रंग खो चुके गोटे, सलमा-सितारे। चटके कांच वाला दादी की माँ का चश्मा। कुछ पुरानी चिट्ठियाँ। एक पुराना मुड़ा- तुड़ा पीतल का हार। ऊन की एक छोटी बिछात। …. दादी के कमरे में बहुत सारा मुल्तान था। इस सबको दादी संभालकर अपनी पेटी में ताला लगाकर रखती। उसने किसी को नहीं बताया, कि बँटवारे के समय जब उसने घर छोड़ा था, तब वह थोड़ा सा मुल्तान अपने साथ ले आई थी, जो आज तक उसके पास है।
कभी वह कहती कि मुल्तान हर वक्त चहकने, हल्ला गुल्ला करने और कभी न थकने वाला शहर था। सो वह उसे अपने साथ ले आई। वह कहती कि अस्सी साल की उमर में भी वह जो इतनी तंदरुस्त है, वह कुछ और नहीं मुल्तान ही तो है। वर्ना तो उसे अब तक मर जाना था। मुल्तान कभी धोखा नहीं देता। दादी की आँख, जो हमारे अनुसार फिरंगी वाली नीली आँखें हैं, मुल्तान के कारण ही चमकती हैं। मुल्तान ने कभी दादी को अकेला नहीं छोड़ा। वह उसके अकेलेपन में चला आता। जब वह अकेली बैठी होती तो मुल्तान उससे बात करता। कोई शहर भी बात करता है। जरूर करता है। आप अगर उससे बात करें तो भी कुछ कहता है। कभी वह चुपचाप आता। उसे अपनी दुनिया में ले जाने के लिए। कहते हैं मुल्तान ने ही उससे कहा था कि चुप रहना इंसान की फितरत नहीं। कि इंसान ही है, जो कहता है। बताओ कभी किसी ने देखा कि कोई जानवर बात कर रहा हो ? बोलना याने इंसान होना। चुप रहना याने जानवर होना। फिर बताओ वह क्यों न मुल्तान के बारे में कहे। कि मुल्तान को न कहकर चुप रह जाना गलत है।
मुल्तान की वजह से दादी की धौंकनी में एक लय थी। जब शाम को दादी घूमकर आती, तो जो उसकी छाती दचकी पिचकी मशक की तरह फूलती पिचकती, वह मुल्तान ही होता। मुल्तान दादी की साँस से साँस लेता। जब दादी का दिल धड़कता, तब मुल्तान की रगों में खून दौड़ पाता। जब दादी आँखें बंद करती मुल्तान तभी सो पाता। यहाँ तक कि उसका समय भी दादी की उस चाबी वाली बड़ी दीवाल घड़ी से चलता जो बाबा अपने समय में लाये थे और जो किसी को नहीं मालूम कब से दादी के कमरे में लटकी थी – ‘देखो शाम हो गई, उन दिनों मुल्तान में पल्ली तरफ से बच्चों की आवाज़ें आती थीं इस वक़्त और इस वक़्त मुल्तान के घर के चौके से उठती थी चाय की गंध।‘ एक दिन उसने पिता और मां को झल्लाते हुए कहा था – ‘ सबर करो, मुल्तान भी छूट जाना है। …..जब यह बुढ़िया मरेगी तब मुल्तान भी छूट जाना है। हां उस दिन छूट ही जाना है …।‘ मुल्तान के ख़त्म होने के लिए, दादी का मरना जरूरी था। हम तब तक कोई ऐसा शहर नहीं जानते थे, जो किसी के मरने के साथ ही ख़त्म हो जाये। शहर जो आज तक सिर्फ इसलिए है, कि कोई बुढ़िया अभी मरी नहीं है। किसी पराये मुल्क़ में रह रही बुढि़या जब तक ज़़िंदा रहेगी, मुल्तान आबाद रहेगा। चहकता रहेगा।
कभी वह बताती वह बड़ी डरावनी रात थी। चौदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस। देर रात। अचानक बिना किसी आहट के चुपचाप आ गई एक रात। एक रात जो गढ़ी गई। लिख दी गई कलैण्डर में चुपचाप। एक रात जो कुछ इस तरह आई कि वह सिर्फ रात भर नहीं थी। घर के बाहर खड़े अम्मा-बाबू दादी को बुला रहे थे। उन्हें अभी जाना है। अभी ही। तुरंत अभी। बिल्कुल अभी। सारे शहर में कोहराम मचा था। दादी को उसकी माँ ने बताया था, कि वे अब जा रहे हैं। कि उन्हें जाना है। हमेशा के लिए। इस हमेशा के लिए अब उनके पास एक पल भी नहीं। एक सेकेण्ड नहीं। अम्मा-बाबू जी बुला रहे थे और वह तब भी कुछ चीजें बटोर रही थी। कुछ चीजों को छोड़ जाना उसके बस के बाहर की बात थी। पर कुछ चीजों को छूटना ही था। वह खुद को समेटती हुई कहती कभी – ‘कितना कुछ तो छूट गया……..।‘
छूट ही तो गया न डेरा गाजीखान से घंटे दो घंटे के फासले पर खड़ा कोई सुलेमान पहाड़। कोई फोर्ट मुनरो छूटा हमेशा के लिए, भले आता हो उसके ख़्वाबों में तब भी। वह जो उन दिनों उसकी जद में था, लगता ही नहीं था कि छूटने को है। हमेशा के लिए छूटने को। चारों ओर भागमभाग थी। मारकाट मची थी। गलियों में बहता था ख़ून। चीख़ों का सैलाब आया था जैसे। पर दादी कुछ ढ़ूँढ़ रही थी, दादी की मुल्तानी खुस्सा (परंपरागत मुल्तानी जूते), एम्ब्रायडरी वाले कपड़े, ऊंट के चमड़े का कोई बड़ा सा लैंप, मिट्टी के बर्तन जिसे दादी ने माँ के साथ मिलकर रंगा था….। घर से निकलकर घर को देखती उसकी माँ बच्चों की तरह सुबक-सुबक कर रो रही थी। बाबू जी ने उसकी कलाई पकड़कर उसे वहाँ से खींचा था। माँ रोती सुबकती बाबू जी के साथ घिसटती सी चल रही थी। पलट-पलटकर अपने घर को घूरती सी देखती। बाबू जी चुप थे। उन्होने बडे़ जतन से पाई-पाई जोड़कर यह घर बनवाया था, पर उस दिन वे चुप थे। उस समय भी जब माँ उनकी छाती पर अपना सिर रख रो रही थी।
एक दिन वह एक बेगाने और रोते गिड़गिड़ाते लोगों के तंबुओं वाले कैंप में थी। तब वे सब एक नई बिरादरी में शामिल हो चुके थे। वह, बाबूजी और माँ। उस बिरादरी का नाम था – शरणार्थी। वे सब वहीं थे। किसी पराई ज़मीन पर। बहुत दूर की अजनबी ज़मीन पर। लोग उसे हिंदुस्तान कहते। उसे एक नया नाम मिला था – भारत। एक बेगाने से शहर के खाली और मनहूस कोने में। वह अमृतसर कैंप था।
दादी बताती आते समय बाबू जी ने पूरी दो गठरियां फेंक दी थीं। सामान साथ ले चलना मुनासिब नहीं था। सारा सामान यहाँ वहाँ बिखर गया था। लोग उस सामान को कुचलते रेलमपेल में चल रहे थे। बाबूजी दादी का हाथ खींचते घसीटते भीड़ में रत्ती – रत्ती बढ़ रहे थे। दादी उन चीजों की ओर इशारा करती रोती रही थी। वह भारत – पाकिस्तान सीमा पर किसी नदी पर एक सकरा पुल था और वहां अक्सर लाखों की रोती- बिलखती भीड़ में लोग कुचलकर मरते थे। दोनों तरफ की सरकारें गिन लेती थीं, कि आज कितने मरे। मरने वाले नंबरों में से कितने उनके और कितने इनके। कि दोनों नंबरों को जोड़ने पर मरने वालों की सही-सही संख्या आती है, या नहीं। उसी जगह पर। ठीक वहीं। दादी बताती उनके बाबू जी कहते थे, कि वे, माँ और दादी सब मरने को तैय्यार हैं। वे तैय्यार हैं, कि धड़धड़ाती और ठसाती भीड़ उन्हें कुचलकर मार दे। वे तैय्यार हैं, कि कुछ लोग तलवार, बल्लम, छुरा, लाठी लेकर उन पर टूट पड़ें और उन्हें बेरहम तरीके से मार डालें। वे तैय्यार हैं, कि …। दादी के बाबू जी, दादी की माँ के कान में कांपते होठों से फुसफुसाते …. कि, वे तैय्यार जो हैं और दादी की मां एकदम से दादी को अपनी छाती से लगा लेती और जोर – जोर से बिलख – बिलखकर रोती। दादी के बाबूजी सुबुकते। वे सचमुच तैय्यार थे।
शहर छूटा, ज़मीन छूटी, इस तरह छूटे लोग। दादी कहती – बलूच, पश्तो, पंजाबी,सेरैकी, सिंधी,…। बस रह गये , उनके अनगिनत किस्से। किस्से जिनका मतलब एकदम से बदल गया था। उस कैंप में किसी ने उसके कान मरोड़े थे, जब वह एक पश्तो गाना गुनगुना रही थी – ‘नामुराद। पाकिस्तानियों का गाना गाती है। उन हरामज़ादों का ….। ’ चीजें एकदम से बेगानी और दुश्मन हो गयी थीं। फिर भी दादी बोलती रही। दादी कहती उस समय भी उसने कहा। दादी अपनी तार- तार छाती फुलाकर कहती – ‘हाँ मैंने तब भी कहा। दादी बताती किसी कंपनी बाग के बारे में … बताती किसी सूर्य मंदिर और सूरजकुण्ड के बारे में। वह कहती मैं तो तब भी कहने से कहाँ रुक पाई थी। उन दिनों भी,जब लोग वहां का कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। जानना नहीं चाहते थे। दादी तब भी कहाँ चुप रही।
उम्र बीतती जाती है और दादी आज भी मुल्तान शहर के परकोटे वाले दरवाजों से तांगे में बैठकर शहर के अंदर बाहर हो जाती है – दिल्ली दरवाज़ा, बोहार दरवाज़ा, हरम दरवाज़ा, …… और बहुत से टूट – बिखरकर खत्म हो गये दरवाजे़ – कोई दौलत और लाहोरी दरवाज़ा और कोई पाक दरवाज़ा …जहाँ उन दिनों कुछ लोगों ने कच्चे – पक्के घर बना लिये थे। तांगा एकदम से उलट जाता, दादी चीखकर जाग जाती ….हम हड़बड़ाते से दादी को झकझोरते… दादी, दादी….। दादी कहती – कुछ नहीं सपना था। सपने वाले मुल्तान के बारे में दादी ने कभी नहीं बताया। किससे कहे ॽ क्या कहे वह ॽ
उसकी तमाम कहानियाँ कहीं पहुँचकर अटक गई थी। शब्बो की कहानी, मुन्नी की कहानी, स्कूल की कहानी, साहिवाल के आमों के बगीचों के किस्से, पश्तो और बलूचों की बेवकूफियों के किस्से, जामिया मस्जिद की कहानी, गिट्टे के खेल की कहानी, घर के कीलों वाले लकड़ी के दरवाजे की कहानी……..बहुत छोटी-छोटी चीजों की कहानी, जो एक जगह जाकर रुक जाती। हम पूछते – ‘ फिर क्या हुआ ?’ ‘बताओ न दादी फिर क्या ?‘ दादी, दादी फिर क्या ? ‘बोलो न?’ दादी साँस छोड़ती कहती – ‘होना क्या था, हम मुल्तान छोड़कर चले आये। मुल्तान हमसे छिन गया।’
माँ उन पर हँसती -‘ बीवी जी की बातें भी उनकी ही तरह हैं – आधी अधूरी। ’ माँ की बात का जवाब वह हमें बताती। कहती कि मुल्तान के किस्से आधे अधूरे नहीं हैं । किताबों में लिखा है कि उन्हें तो आधा – अधूरा बनाया गया है। जानबूझकर। वह कहती, कि कोई रैडक्लिफ था, उसने एक लाइन खींची थी। करोड़ों लोग लाइन के इधर और करोड़ों उधर। करोड़ों लोगों के घर लाइन के उधर और करोड़ों के इधर। लाइन के इधर भारत और लाइन के उधर पाकिस्तान। इधर मुल्तान और उधर बुलंदशहर। लाइन के एक तरफ दादी और दूसरी तरफ शब्बो। दादी कहती – कसम से। यह सब सच है। किताबों में लिखा है। लाखों लोग यतीम हो गये थे, बेघर, बेपरिवार और बेज़मीन, इंसान और जानवर दोनों एक जैसे। लाखों लोगों को भेड़ – बकरी बनाकर हुजूम में इधर से उधर किया गया। मुल्तान ही क्या ….दादी बताती, भारत और पाकिस्तान के हजारों शहरों और लाखों घरों के किस्से और बातें आधी – अधूरी रह गईं, कि जिस तरह दादी हार जाती है, वैसे करोड़ों बुड्ढ़े – बुढ़िया हैं, जो बार -बार हारते हैं। इधर भी और उधर भी। अध छूटते किस्से और कहानियाँ उन्हें बार -बार हरा देते हैं।
कभी वह हम बच्चों से ही पूछ बैठती – ‘बताओ हमने इनका क्या बिगाड़ा था ? बोलो, बोलो ? क्या कसूर था हमारा ॽ’ हम हक्के बक्के से दादी को ताकते। फिर उसी से पूछते – ‘दादी बोलो न, बोलो न किसने बिगाड़ा था ? कौन था ? कि इस बात का मतलब क्या है ? कौन था रैडक्लिफ ॽ कि वह बिगाड़ने वाला कहां रहता है ? कि … ?’ वह चुप हो जाती। अपनी चुन्नी से अपनी आँख और नाक पोंछती। हम सब खेलने चले जाते। हम आपस में बात करते, कि दादी जाने कैसी बहकी – बहकी बातें करती है। माँ शायद ठीक कहती है, कि दादी को तो बे सिर पैर की बात करने की आदत है। दादी कहती, जब हम सब बड़े हो जायेंगे, तब इस बात का सिर और पैर ढ़ूँढ़ लेंगे … बस बड़े भर हो जायें, यह बात फिर बे सिर पैर की नहीं रह जानी है।
एक रोज हुआ यूँ कि उस दिन हम सब दिल्ली जा रहे थे। जब बुलंदशहर आया, पिताजी ने कहा यहाँ थोड़ा रुकेंगे. …गंगा की नहर के पास। हम कुछ देर वहाँ रुके रहे। खेलते – बतियाते रहे। पर दादी वहाँ नहीं थी। दादी गाड़ी में ही रही और हमारे बीच नहीं आई। पिता ने कहा, मैं उनको बुला लाऊँ। जब मैं गाड़ी के पास पहुँचा तो देखा, कि वह गाड़ी में बैठी रो रही है। उसने मुझसे कहा कि मैं किसी को न बताऊँ कि वह रो रही है। मैंने नहीं बताया। उस दिन शाम घर में बड़ा तमाशा हुआ। वह एक चालीस साल पुरानी बात ले बैठी और पिता पर लाल पीली होने लगी – ‘…बता। तू क्यों घर छोड़कर चला आया था। बोल। तू न आता तो आज भी मैं वहीं होती। बोल तूने ऐसा क्यों किया था ? बोल……। तू क्यों छोड़ आया था बुलंदशहर।’
माँ दादी को समझा रही थी। पिता दादी की हर बात का जवाब दे रहे थे। थोड़ी तेज़ आवाज़ में। बार-बार पलटकर। थोड़ी देर बाद माँ और पिता दोनों उनसे बहस करने लगे। कहने लगे कि बुलंदशहर को छोड़ना जरूरी था। निहायत ही जरूरी। उस शहर को तो छोड़ना ही था। ठीक हुआ जो छोड़ दिया। देर तक बहस चली। अंत में सब कुछ शांत हो गया। दादी लुटी-पिटी एक कोने में बैठी रही। पता नहीं उसको क्या हुआ,वह दीवार पर टंगे एक नक्शे के पास जाकर खड़ी हो गई और पिता को एक हारे हुए शख़्स की तरह से समझाने लगी-‘देख पुत्तर। तू तो मेरा है। तुझसे तो कह सकती हूँ न, कि क्यों तूने मेरा घर छुड़ाया। जिन लोंगो ने मुझसे मेरा मुल्तान छीन लिया और यह लाइन खींची…….उनसे तो मैं कुछ कह भी नहीं सकती…….।’
उसकी उँगली नक्शे की एक लाइन पर थी, जिसकी एक तरफ एक रंग का पाकिस्तान और दूसरी तरफ दूसरे रंग का भारत का नक्शा बना था – ‘अगर उन लोगों से मैंने अपने मुल्तान का हिसाब माँगा तो वे तो मुझे जेल में डाल देंगे। कहेंगे बुढ़िया पागल हो गई है। पर तू तो मेरा अपना है……। तुझे तो कह सकती हूँ न।’
माँ, उसकी बात पर खिलखिलाकर हँसने लगी -‘लो आ गया फिर से मुल्तान। ’ पिता, माँ की बात पर मुस्कुराये। हम सब बच्चे उसको चिढ़ाने लगे- ‘दादी का मुल्तान, डेढ़ टाँग और कच्चा कान…. .।‘ वह भी मुस्कुरा दी। एक बनावटी फीकी मुस्कान।
पता नहीं क्या हुआ, उस दिन उसने खाना नहीं खाया। माँ ने बताया – ‘ बीवी जी की तबीयत खराब है, कह रही हैं, खाना न खायेंगी। ’ मुझे पहली बार उनके लिए खराब लगा। झगड़े के बाद घर में सन्नाटा पसरा था। हम बच्चों के बीच उस लाइन के बारे में बात हो रही थी।
मैं चुपके से वह नक्शा उतार लाया। …..क्या यही है वह लाइन, जो अक्सर दादी बताती है ? क्या यही ? ….लाखों लोग इधर और लाखों लोग उधर। हम सब बच्चे फुसफुसाते से उस लाइन के बारे में बात कर रहे थे। …..उस आदमी का क्या नाम बताया था, दादी ने ?…रैडक्लिफ, हाँ यही तो था। मैंने सेाचा दादी से ही पूछेंगे। मुझे खराब भी लगा। क्या जरूरत थी, नक्शे पर यह लाइन बनाने की। पर दूसरे ही पल ख़याल आया, जरूर पिता जानबूझकर ऐसा नक्शा लाये होंगे जिसमें यह लाइन हो और दादी इस लाइन को देखकर कुढ़ती रहे। जलती रहे। खामखाँ तमाशा कर दिया।
मैं चुपचाप से दादी के कमरे में गया। दादी अपने बिस्तर पर लेटी थी। मेरे हाथ में, गोल-गोल मुड़ा वह नक्शा था। मैं दादी के चेहरे के पास गया। वह लेटी थी। मैं उसके पास उसके बिस्तर में ठस गया। मैंने दादी से सब पूछा – ‘… वही लाइन, लाखों लोग, रैडक्लिफ,…’ – दादी ने मुस्कुराते हुए कहा – ‘हाँ।‘
मैंने दादी को फुसफुसाते हुए चुपके से एक बात बताई। कि मेरे कंपास में टच एण्ड गो है। पता है, इससे क्या होता है ? दादी तुम्हें तो कुछ भी नहीं पता। टच इण्ड गो से हर प्रकार की लाइन मिट जाती है। यह लाइन भी मिट जायेगी। मैं मिटा दूँगा। सच में। टच इण्ड गो से मिटने के बाद लाइन खत्म हो जाती है। इस तरह से खत्म हो जाती है कि फिर पता भी नहीं चलता है। मैं इस लाइन को मिटा दूँगा। चुपके से। तू चिंता न कर। तू देखना इस तरह मिट जायेगी यह लाईन कि न तो माँ, पिता को पता चलेगी और न उसको जिसका नाम तू अक्सर लेती रहती है, वो मुआ रैडक्लिफ। उसे भी पता नहीं चल पायेगा। इतनी सी तो बात है और तू तो बस खामखाँ ही परेशान होती है। देख मैं अभी इसे कैसे मिटाता हूँ। …. दादी ने मुझे अपनी छाती से लगा लिया और कहने लगी- ‘पुत्तर बस तू ही तो मेरा है, बस तू ही…..।‘- वह फूट-फूटकर रोने लगी।
मेरे गाल पर दादी के आँसुओं का गीला चकत्ता जम गया। मैंने गौर से दादी की आँखें देखीं … उनमें मुझे कहीं कोई काला लैंस नहीं दीखा। मैंने गौर से देखा, शायद दिख जाये नीली आँखों पर काला लैंस ..। पर दादी की आँखें काली ही थीं, उन पर कोई लैंस नहीं था। जब दादी ने अपना चश्मा उतारकर अपनी आँखें पोंछीं तब मैंने उन्हें ध्यान से देखा और अगले दिन सारे दूसरों बच्चों को बताया कि दादी की आँखें नीली नहीं हैं। सचमुच वे नीली नहीं हैं। मैंने खुद देखा, बिल्कुल पास से। उनकी आँखें काली हैं। कोई लैंस नहीं, बस काली। सच में….. दादी फिरंगन नहीं है। वह किसी पराये मुल्क़ की नहीं है। बिल्कुल नहीं है। सच में …। कि तुम सब देखना वह कभी नहीं जायेगी। वह हमेशा हमारे साथ रहेगी। हम सबके बीच। हमेशा।
….वे ठण्ड के दिन थे। 15 दिसंबर 1998। दिल्ली के ग्रेटर कैलाश अस्पताल का रूम नम्बर बहत्तर। वार्ड ब्वाय ने बाहर आकर मेरा नाम पूछा था और कहा था कि मैं पेशेन्ट से मिल सकता हूँ। कमरे में दादी की जार जार होती देह बिस्तर में घुसी थी। मैं उनके पास बैठा रहा। मेरे गर्म और जवान हाथ में उसका ढ़ाँचा -ढ़ाँचा ठण्डा हाथ था। उसने बड़ी मुश्किल से तकिये के नीचे से कोई बहुत छोटी सी चीज निकाली। लोहे की छोटी ठण्डी चाबी, जो उसने बहुत धीरे से मेरे हाथ में रख दी थी और फुसफुसाते हुए कहा था – ‘ मुल्तान की चाबी ’। मैं देर तक अस्पताल की खिड़की से झाँकती बहुमंजिला ऊँची इमारतों और गहराती ठण्डी सलेटी धुंध को देखता रहा था। मुल्तान की छोटी लोहे की ठण्डी चाबी मेरी हथेली में धीरे -धीरे गर्म होकर गुनगुनी हो आई थी। मैंने बहुत कम बार उस चाबी को उस बक्से के ताले में लगते देखा था, जिसमें दादी का अल्लम-टल्लम मुल्तान था। उस दिन मैंने आखरी बार दादी से बात की थी।
बरसों बीत गये, पर आज भी मेरे माता पिता को नहीं पता, कि दादी के पास एक मुल्तान था। जीता-जागता। वह मुल्तान जो आज भी मेरे घर के एक कमरे में रखा है। जिसके बक्से की चाबी मेरे पास है।
तरूण भटनागर
सुपरिचित कहानीकार एवं उपन्यासकार। चार कहानी संग्रह और तीन उपन्यास। इतिहास, आदिवासी विमर्श और वैश्विक कथ्यों पर लिखित रचनायें विशेष रूप से उल्लेखित। पहले उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ को स्पंदन कृति सम्मान और पहले कहानी संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ियाँ’ को वागेश्वरी सम्मान। उपन्यास ‘राजा,जंगल और काला चाँद’ और कहानी संग्रह ‘ प्रलय में नाव’ अंग्रेजी में अनुदित। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित दूसरा कहानी संग्रह ‘भूगोल के दरवाजे पर’ तथा नवीनतम उपन्यास ‘बेदावा’ विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुदित। कहानी और उपन्यास के अलावा इतिहास विषयक आलेख आदि लेखन का कार्य। सांस्कृतिक संस्थानों यथा भारत भवन में नवाचार और नवीन श्रृंखलाओं के लिए विशेष कार्य। वनमाली कथा सम्मान, मध्य भारत हिंदी सम्मान,शैलेष मटियानी सम्मान आदि से सम्मानित। इंदौर में रहते हैं।
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