बहरहाल, यहां हम ज्ञान चतुवेॅदी के ‘स्वांग’ उपन्यास का एक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। स्वांग बुंदेलखंड की लोकनाट्य विधा है जो अब लुप्तप्राय है जिसका किस्सा नकली होते हुए भी असली प्रतीत होता है। ज्ञान चतुवेॅदी ने उस स्वांग के मार्फत हिंदुस्तान के बदलते तंत्र के डिके की ,उसके खोखलेपन की कहानी प्रस्तुत की है।
– हरि भटनागर
उपन्यास अंश
‘नीलगाय आ रही हैं क्या ?’ बूढ़ा चौंककर उठ गया।
*
अब वह घबराया-सा बैठा हुआ है खेत की मेंढ़ पर बनी अपनी झोपड़ी में।
आधी रात से ज्यादा का टेम तो होगा अभी। घने अंधेरे से भरी आसमान की देग ठंडी पड़ी हुई है। शाम से ही हल्के बादल रहे हैं । बादल अभी भी हैं और हैं यहां-वहां, इक्का-दुक्का सितारे ; मानो धरती से मुंह छुपाते हुये फिर रहे हों आसमान में । सर्दी बढ़ गई है। प्लास्टिक की पन्नी डाल कर बनी झोपड़ी की छत बल्लीनुमा लकड़ियों पर टिकी है। बे-दरो-दीवार का आशियाना । नीचे , मिट्टी पर पुआल बिछा रखा है। उसी पर एक झीनी सी दरी। ओढ़ने के लिये बुरी तरह छीज गई एक फटी हुई कथरी।बस, इन्हीं अस्त्रों के सहारे सर्दी से लड़ता हुआ रात की चौकीदारी निभाता है बूढ़ा। वैसे पंडिज्जी ने खेत पर कटीले तार की बागड़ भी लगा रखी है। बागड़ मजबूत हो तो नत्थू जैसा बूढ़ा भी खेत की रखवाली कर सकता है – ऐसा विश्वास है पंडिज्जी का।
बूढ़ा इससे पहले देर तक जागता रहा था।
उसे नींद ही नहीं आ रही थी। नहीं, चिंता के कारण नहीं। चिंतायें तो जीवन भर उसका पीछा करती रही हैं।अब चिंताओं से नींद नहीं खराब होती है उसकी। आदत सी हो गई है चिंताओं में ही जीने की। श्वास का तो हिस्सा हैं चिंतायें।उसकी हर श्वास पर एक न एक चिंता सवार रहती है। हर श्वास के साथ चिंता अंदर तो जाती है पर बाहर नहीं निकलती। चिंताओं का भारी भीड़ भड़क्का मचा रहता है उसके भीतर। मन में भारी कोलाहल रहता है । अब तो इसी कोलाहल में सोने की आदत पड़ चुकी है उसे। यह कोलाहल न हो तो वह सो ही न पाये। …. तो नींद तो बस यूं ही नहीं आ रही थी। चिंता ? नहीं , चिंता जैसा कुछ नहीं। अरे, काहे की चिंता ?जीवन में जब सब कुछ बुरा ही होता चला जाये तो फिर आदमी चिंता करना छोड़ देता है। तो, नींद तो आ ही जाती है उसे । रोज-रोज वह यही सोचकर सो जाता है कि आगे और कुछ ज्यादा ही बुरा घटे, उससे पहले थोड़ा आराम कर लिया जाये। हां, आज तो यूं नींद नहीं आई कि बीड़ी एक ही बची थी। अभी पियें कि बाद में ? वह नित्य ही सोने से पहले एक बीड़ी पीता है और एक तुरंत उठने पर ।आखिरी कश खेंच कर, बीड़ी का टोंटा फेंक वह करवट लेकर सो जाता है। तय पाया गया कि इस बची हुई बीड़ी को बाद के लिये सहेजकर रखा जाये।
गहरी नींद क्या होती है – वह नहीं जानता। कभी यह चीज देखी या सुनी ही नहीं। वह मानता है, ‘के सोये राजा का पूत, के सोये जोगी अवधूत।’ वह न तो राजा का पूत है, न ही कोई जोगी। उसकी नींद तो बस ऐसेई है। सोता जरूर है, पर जागता- सोता रहता है रात भर। कभी कुछ देर को अच्छी नींद आई भी कि तभी फटी कथरी से हवा घुसकर पसलियों के पिंजरे से टकराती है और प्राणों का पंछी फड़फड़ाने लगता है। वह नींद से उठता है और एक बार फिर से फटी कथरी को कौशलपूर्वक ऐसे ओढ़ने का जतन करता है कि हवा और ठंड के खिलाफ ठीक सी किलेबंदी हो जाये ! रात भर , वह फिर फिर सोता है, फिर फिर जागता है। चौकीदारी, श्वासें, नींद, सपने और जागरण – सब एक साथ चलते रहते हैं।
आज रात भी काला आसमान देखते-देखते उसे कब नींद आ गई, पता नहीं चला।
फिर कोई सपना चल पड़ा। ऐसा कुछ खास नहीं। बस, बेतरतीब सपनों की लुका-छिपी। टुकड़ों में सपना। टुकड़े-टुकड़े सपने। झलकियां। अच्छे। बुरे। अबूझ। फाल्तू के सपने। और सपनों के पार्श्व में पास की रोड पर गुजरती गाड़ियों की इक्का-दुक्का आवाजें वर्ना सन्नाटा तो हरदम बजता ही रहता है। तब वह यूं ही कोई सपना देख रहा था । शायद रोटी का। रोटी के साथ चटनी भी तो थी शायद ? हां, थी तो। शायद अपनी छत का सपना भी था। शायद सुख का सपना। शायद कम दुख का सपना। शायद हंसी का। शायद कम रोने का। …. ऐसा ही कोई फाल्तू फंड का सपना कि जो उठने के बाद सुबह याद ही नहीं रह जाने वाला। …. कि तभी सपने के पार्श्व में बेतरतीब टापों की तेज आवाजें उभर आईं। फिर ये आवाजें तेज होती चली गईं। तेज। और तेज। और, और तेज। पास आती हुई टापों की आवाजें। दुश्मन की फौज पास आ रही है क्या – सपने में तैनात सैनिक ने साथी सैनिक से पूछा। साथी सैनिक ऊंघ रहा था। चौंककर उठ गया।
‘हां, दुश्मन ही आ रहे हैं।’
टापों की आवाज सुनकर नत्थू अचानक ही चौंककर उठ गया।
घबराकर नींद से उठ बैठा था वह। कथरी को एकदम से झटक के सतर्क बैठ गया है अब बूढ़ा।
दौड़ते पशुओं की सामूहिक टाप की आवाज है जो क्षितिज से इसी तरफ तेजी से बढ़ रही है। बहुत से पशु भागकर इसी तरफ आ रहे हैं। वह खड़ा होकर टोह लेने लगा।
‘नील गायें आ रहीं हैं क्या ?’ भय से भर गया वह।
*
नील गायों का इलाका है यह।
बेतवा नदी के साथ साथ मीलों तक बीहड़ इलाका है। इसी बीहड़ में घूमते हैं, नीलगायों के झुंड। बेलग़ाम।
रात में टोलियां निकल आती हैं इनकी। आवारा घूमती हैं आसपास। खेतों से, मैदानों से होकर गुजरती है ये टोलियां। खड़ी फसल को रौंदती हुई। मिनटों में खेत के खेत बरबाद करती। कोई चौकीदारी करता हुआ खेत पर सो रहा हो, उसे कुचलते हुये भागती जाती हैं नील गायें।मानो दुश्मनों की सेना की कोई टुकड़ी । चौकीदार जागा हुआ भी हो तो कैसे रोके इनको ? कोई रोक नहीं सकता इन्हें। डंडे से, या हकालकर भगाने की बात तो सोचना भी संभव नहीं। बहुत बड़ा जानवर है। इलाके के दबंग आदमियों टाइप चलती आती हैं ये। कौन रोकेगा इनको ?
खड़े होकर अब खुद के बचाव की तैयारी में है बूढ़ा।
नहीं, कोई हथियार नहीं हैं उसके पास। उसे तो नील गायों के रास्ते से भागकर ही बचना होगा परंतु टूटे घुटने लेकर तेज भागना भी तो संभव नहीं। वह खड़ा होकर समझने की कोशिश में है कि पास आती नील गायों की सही दिशा क्या है ? अभी खेत एकदम शांत हैं। खेत किसी हद तक नील गाय से सुरक्षित भी हैं। पंडिज्जी ने तारों की बाड़ में करंट छोड़ने का इंतजाम कर रखा है। खेत से लगा हुआ बिजली का सरकारी ट्रांसफार्मर है। बूढ़े का रोज का काम है कि सोने से पहले, रात के टेम इस ट्रांसफार्मर से बिजली का तार लेकर बागड़ को जोड़ दे और सुबह-सुबह इसे हटा दे। रात भर करेंट दौड़ता है खेत के चारों ओर। नील गायें अगर खेत में घुसने की कोशिश करेंगी तो बिजली का जोरदार झटका खायेंगी और बिदककर रास्ता बदल लेंगी।
सो खेत तो सुरक्षित हैं। उसे ही अपनी जान बचानी है।
वैसे करंट तो आ ही रहा होगा। मान लो कि करंट न आ रहा हो, तब ? तार को एक बार छूकर देखा जाये क्या? नहीं, तार को छूना संभव नहीं। करंट तो आ ही रहा होगा। तुम खेत की चिंता मत करो नत्थू, अपनी जान की देखो भैय्या। टापों की आवाजें और भी निकट आती जा रही हैं। नीलगाय कहीं इसी मेंढ़ पर दौड़ती हुई आईं तो उसे कुचलती हुई निकल जायेंगी। वह कानों को उसी तरफ करके उनके आने की दिशा का अनुमान करने लगा। अभी कित्ती दूर होंगी ? हमारे खेत की तरफ आयेंगी या बगल के खेत से गुजरेंगी ? तो भागकर अभी सड़क पर निकल जाया जाये क्या ?
वह मेंढ़ पर तेज-तेज चलने के प्रयास में लड़खड़ाता हुआ सड़क की दिशा में चल पड़ा।
निकल ही लिया जाये। बूढ़ा लंगड़ाती चाल से जितना तेज चला जा सकता है, उतना तेज चलकर सड़क तक जा पहुंचा।
सड़क पर, यत्र-तत्र पसरे हुये हैं बजरी के ढेर। सड़क कूटने का इंजन खामोश खड़ा है। अंधेरा है। सन्नाटा है। सड़क पर माहौल अभी भुतहा सा है। दूर से, बहुत से जानवरों के भागकर आने की पदचापें सुनाई दे रही हैं। पास आतीं। और-और पास आतीं।
उसे पता है कि खेत सुरक्षित हैं, फिर भी उसने खेत की तरफ चिंता की नजरों से से देखा। पंडिज्जी नाराज तो न हो जायेंगे कि तुमको खेतों की रखवाली के लिये रखा था कि खुद की जान बचाने के लिये ?
कई बार करंट लगने से मर भी जाती हैं नीलगाय – एक के बाद एक, पटापट, दो तीन तक। कभी नीलगाय के बोझ से तार टूट भी जाता है। तब करंट भी टूट जाता है। ऐसे में खेत को कुचलती हुई निकल जाती है नीलगायों की भीड़।
बूढ़ा नत्थू एहतियात के लिये अब सड़क कूटने के विशालकाय इंजिन के पीछे छुपकर टोह ले रहा है नील गायों की। इधर , तेजी से पास आती पदचापों ने अचानक ही दिशा बदल दी है। पश्चिम तरफ मुड़कर अब वे पंडिज्जी के खेत से दूर जा रही हैं। पदचापों की आवाज अब दूर होती जा रही है। टापों की आवाज़ कमज़ोर हो रही है। राहत मिली उसे। बूढ़ा इंजिन की आड़ से बाहर निकल आया। वह उस दिशा के काले आसमान को देर तक देखता रहा जहां से अभी नीलगायें आ रही थीं। अब राहत थी। उसने कुरते की जेब से बची हुई इकलौती बीड़ी निकाली। माचिस की तीली रगड़ी तो अंधेरे के कुंड में रोशनी की एक छोटी सी भंवर सी बनी। थोड़ी देर तक यह बनी रही। कमजोर सी रोशनी में बूढ़े का चेहरा अंधंरे के बीच उभर आया।
बीड़ी सुलगा ली उसने।
बूढ़ा अब वापस लौट रहा है। बीच-बीच में वह बीड़ी का कश खींचता है तो खेत की अंधेरी मेंढ़ पर जुगनू सा चमक जाता है।
ज्ञान चतुवेॅदी
परसाई और शरद जोशी के बाद , हिंदी व्यंग्य-लेखन को , कई अर्थों में नई ऊंचाइयां , नई दिशा और नई पहिचान देने वाले ज्ञान चतुर्वेदी ने इतना विपुल और बहुआयामी लेखन किया है कि कुछ आलोचक पिछले तीन दशक के हिंदी व्यंग्य लेखन के वर्तमान समय को ‘ज्ञान चतुर्वेदी युग’ का नाम दे चुके हैं ।
छह बेहद चर्चित और लोकप्रिय उपन्यास , बारह व्यंग्य-संग्रह , हजार से ज्यादा फुटकर व्यंग्य-लेख और व्यंग्य कथायें ,सालों तक हिंदी के महत्वपूर्ण अखबारों पत्रिकाओं में नियमित व्यंग्य स्तंभ ,और बेहद अलग से चर्चित संस्मरण रचकर ज्ञान चतुर्वेदी ने हिंदी साहित्य में न केवल अपना अप्रतिम स्थान बनाया है , वर्तमान में सक्रिय युवा पीढ़ी और समकालीन व्यंग्य लेखन को एक नई परंपरा भी सौंपी है । उनका सातवां उपन्यास (एक तानाशाह की प्रेमकथा ) प्रकाशित होने को है और आठ नये व्यंग्य संग्रह आने को हैं ।
प्राॅलिफिक लेखन के साथ निरंतर कुछ नया , अलग और बेहतरीन लिखना , हर नई रचना में स्वयं के रचनाकर्म को अतिक्रमित करना ही ज्ञान चतुर्वेदी को न केवल हिंदी वरन विश्व की अन्य भाषाओं के बड़े लेखकों की पंक्ति में महत्वपूर्ण स्थान देता है । परसाई के बाद के हिंदी व्यंग्य को नये तेवर , भाषा ,कहन , विषय , प्रयोग और क्राफ्ट से समृद्ध करने वाले ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने निरंतर उत्कृष्ट व्यंग्य लेखन (विशेषतौर पर अपने उपन्यासों ) द्वारा सिद्ध किया है कि व्यंग्य केवल राजनीतिक विषयों के आसपास मंडराते रहने का ही नाम नहीं है , इसमें पारिवारिक जीवन , मानवीय संबंधों , गहरी आत्मिक संवेदनाओं , बाजार की दुरभिसंधियां , सामाजिक बुनावट के गहरे अंतर्विरोध भी उतनी ही शिद्दत से आ सकते हैं जैसे वे कविता और कथा लेखन में आते रहे हैं ; ज्ञान चतुर्वेदी ने व्यंग्य लेखन के दायरे को वहां तक बढ़ाया है जहां जीवन अपने सतरंगी अंदाज में मौजूद हैं ,और मौजूद हैं उसकी विडंबनापूर्ण विसंगतियां भी । पिछले लगभग पचास वर्षों से उनका अटूट, और मनुष्य के लिये प्रतिबद्ध लेखन अपने पाठकों , आलोचकों और साहित्य के गंभीर अध्येताओं को चमत्कृत करता रहा है ; हिंदी विश्व में उनकी हर नई किताब की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है ,उनकी हर नई छोटी-बड़ी रचना पर बाद में वर्षों तक नये नये कोंण से सार्थक चर्चा होती रहती है ।
उनके तीन उपन्यासों का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है ।
बारामासी का अनुवाद ‘अलीपुरा’ (Alipura) नाम से जगरनाट पब्लिकेशन ने हाल ही में छापा है जिसको इंडियन एक्सप्रेस , हिंदुस्तान टाइम्स आदि में अपने समय के महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा तहेदिल बेहद सराहा गया है । सोशल मीडिया पर इस उपन्यास (Alipura ) की निरंतर चर्चा है ।
पागलखाना का अंग्रेजी अनुवाद भी नियोगी बुक्स ‘द मैड हाउस’ (the mad house) नाम से छापने वाले हैं ।
इसके बाद दो और उपन्यासों(हम न मरब और नरकयात्रा ) के अंग्रेजी अनुवाद भी आयेंगे ।
नरकयात्रा का अंग्रेजी अनुवाद वेस्टलैंड पब्लिशर्स से प्रकाशनाधीन है और हम न मरब का अनुवाद जगरनाॅट पब्लिकेशन द्वारा प्रस्तावित है ।
पागलखाना का जर्मन अनुवाद भी होने को है ।
ज्ञान चतुर्वेदी के फुटकर व्यंग्य-लेखों का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद होता रहा हैं । कन्नड़ में अनूदित उनका एक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुआ है । दो और किताबों का कन्नड़ अनुवाद आने को हैं ।
ज्ञान चतुर्वेदी ने कुछ फिल्म स्क्रिप्ट्स भी लिखी हैं जिन पर फिल्में निर्माण के प्राॅसेस में हैं ।
दो अगस्त ,1952 को मऊरानीपुर(झांसी ) में पैदा हुये ज्ञान चतुर्वेदी के पिता डा सत्य प्रकाश चतुर्वेदी मध्यप्रदेश में सरकारी डाक्टर रहे सो उनकी स्कूली शिक्षा मध्यप्रदेश के विभिन्न गांवों में हुई जहां उन्हें बचपन में ही भारतीय ग्रामीण जीवन को गहराई से आत्मसात करने का अवसर मिला ; यही ग्रामीण अनुभव बाद में लौट लौटकर उनकी रचनाओं में बार बार आता रहा है । बुंदेलखंड के ग्रामीण जीवन की गहन पड़ताल करते उनके तीन उपन्यासों की बुंदेलखंड-त्रयी (बारामासी , हम न मरब , स्वांग ) के कई संस्करण पाठकों को निरंतर इसी कारण इतना सम्मोहित करते रहे हैं और हिंदी कथा संसार की अनमोल निधियां माने जाते हैं ।
वैश्विक बाजारवाद की चपेट में आई दुनिया पर उनका लिखा फैंटेसी उपन्यास ‘पागलखाना’ हिंदी ही नहीं , समस्त भारतीय भाषाओं में इस विषय पर अन्यत्र अनुपलब्ध अपनी ही तरह का अनोखा फैंटेसी उपन्यास है जिसे हिंदी के कई बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया है ।इसे बाजारवाद पर लिखी ऐसी बड़ी फैंटेसी माना गया है जो विश्व साहित्य में भी अन्यत्र अन्य भाषाओं में दुर्लभ है । व्यास सम्मान भी इसी कृति को दिया जा रहा है ।
‘नरकयात्रा’ ज्ञान चतुर्वेदी का पहला उपन्यास है जो छत्तीस साल पहले छपा था और आज तक (इसके दसों संस्करण निकलकर) चर्चित है । इस पर एक फिल्म प्रस्तावित है ( ‘सब रास्ता गाॅड की तरफ जाता है’ नाम की इस फिल्म की ) स्क्रिप्ट स्वयं ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखी है । नरक-यात्रा का अंग्रेजी अनुवाद भी आने को है ।
मृत्यु जैसे जटिल और रहस्यमय विषय पर ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास ‘हम न मरब’ वैश्विक स्तर पर किसी भी भाषा में मृत्यु को केंद्र में रखकर लिखा शायद पहला ऐसा वृहद उपन्यास है जहां मृत्यु की विडंबना , त्रासदी , वास्तविकता और फिलाॅसफी को लगातार हास्य-व्यंग्य के तेवर में इस तरह रचा गया है कि लगभग चार सौ पन्नों को हंसते मुस्कुराते पढ़ता हुआ पाठक जब किताब बंद करता है तो वह पात्रों और स्थितियों से एकाकार होकर देर तक गहन विषाद में बना रहता है ।इसका भी अंग्रेजी में अनुवाद हो रहा है ।
2021 में उनका बुंदेलखंड त्रयी का तीसरा उपन्यास ‘स्वांग’ आया जो कोटरा नामक गांव के बदलाव के बहाने हिंदुस्तान के विडंबनापूर्ण बदलाव की ऐसी व्यंग्य कथा कहता है जिसने हिन्दी पाठकों के बीच बहुत कम समय में अपार लोकप्रियता हासिल की है ।यह देश में राजनीतिक , प्रशासनिक , सामाजिक , शैक्षणिक , कानूनी तंत्र के एक विराट स्वांग में तब्दील हो जाने की कथा है ; हर महत्वपूर्ण तंत्र अपनी जगह पर पूरी शिद्दत से मौजूद जरूर है पर इतना भ्रष्ट और जनविरोधी हो गया है कि वह एक स्वांग बन कर रह गया है , बस ।
फरबरी 2024 मे प्रकाशित उनका बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘एक तानाशाह की प्रेमकथा ‘ प्रेम को एकदम अलग तरह से समझने की कोशिश है । इसमें प्रेम है , प्रेम के बहाने स्त्री पुरुष के बीच चल रहा पावर गेम है , देशप्रेम भी है , देशप्रेम को तानाशाही कायम करने के लिये चालाकी से इस्तेमाल करने की कथा भी है ; एक तानाशाह की प्रेमकथा में प्रेम और देशप्रेम की बारीक पड़ताल की गई है ।प्रेम के बहाने तानाशाही , और तानाशाही के बहाने से प्रेम को व्याख्यायित करने का यह अनूठा प्रयास है । यह ज्ञान चतुर्वेदी का सातवां उपन्यास है ।
ज्ञान चतुर्वेदी ने श्याम शाह मेडिकल कॉलेज , रीवा से लगभग समस्त विषयों में गोल्ड मेडल के साथ एमबीबीएस और एमडी की परीक्षा पास की है । इंटरनल मेडिसिन और कार्डियोलॉजी के विशेषज्ञ के तौर पर भेल भोपाल में तैंतीस साल कार्यरत रहकर वे अगस्त 2012 में वहां चीफ आफ मेडिकल सर्विसेज पद से सेवानिवृत्त हुये , और तबसे भोपाल के ही मशहूर नोबल मल्टीस्पेशलिटी हास्पीटल में मेडिसिन विभाग के प्रमुख हैं। वे प्रदेश के एक ख्यातिप्राप्त चिकित्सा विशेषज्ञ तो हैं ही , अपने अनगिनत डीएनबी मेडिकल छात्रों के बीच वे अत्यंत लोकप्रिय पोस्ट-ग्रेजुएट टीचर भी हैं। ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने डाक्टरी पेशे और लेखन के बीच अद्भुत सामंजस्य बिठाकर दोनों ही क्षेत्रों में श्लाघनीय उपलब्धियां हासिल की हैं जो प्रेरणादायक है ।
वे एक बेहद प्रभावशाली वक्ता भी हैं जो श्रोताओं को बांध लेते हैं ; मंच से व्यंग्य रचना पाठ करने में भी वे सिद्धहस्त हैं ।
उनको अनेकों सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा गया है ।
ज्ञान चतुर्वेदी को वर्ष 2015 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया ।
संक्षेप में उनका रचनाकर्म यह है :
सात उपन्यास :(सारे उपन्यास राजकमल प्रकाशन ,नई दिल्ली से )
नरक-यात्रा (1994) , बारामासी (1999) , मरीचिका (2004) ,
हम न मरब(2014) , पागलखाना (2018) , स्वांग (2021) एक तानाशाह की प्रेमकथा (2024)
व्यंग्य संग्रह:
प्रेतकथा(समांतर प्रकाशन भोपाल),(1985)
दंगे में मुर्गा (किताब घर, दिल्ली), (1998)वे
मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं (अभिरूचि प्रकाशन ,नई दिल्ली ),(1999)
बिसात बिछी है (दुष्यंत संग्रहालय ,भोपाल, (2001)
प्रत्यंचा (भारतीय ज्ञानपीठ , दिल्ली ),(2010)
जो घर फूंके (भारतीय ज्ञानपीठ , नई दिल्ली ),
अलग ( राजकमल प्रकाशन , दिल्ली ) ,(2010)
खामोश नंगे हमाम में हैं (2015) (राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली)
संकलित व्यंग्य (नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली ),(2015)
रंदा (किताब घर प्रकाशन , दिल्ली ),(2016)
गौरतलब व्यंग्य (भारत पुस्तक भंडार , दिल्ली ), (2018) ।
नेपथ्य लीला ( राजपाल एंड संस , दिल्ली )(2021),
विषम कोण ( राजपाल एंड संस , दिल्ली,2024)
कुछ महत्वपूर्ण व्यंग्य स्तंभ जो ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखे :
इंडिया टुडे में लगभग छह साल तक पाक्षिक काॅलम ।
शुक्रवार में लगभग दो साल तक ‘विषमकोंण’ नाम से काॅलम लिखा ।वे
सहारा टाइम्स में लगभग नौ माह तक पाक्षिक व्यंग्य काॅलम ‘रंदा’ लिखा ।
नागपुर से लोकमत समाचार में चार साल से भी ज्यादा समय तक साप्ताहिक व्यंग्य काॅलम लिखा ।
वागर्थ में ‘बाराखड़ी’ नाम से दो साल से भी ज्यादा समय तक व्यंग्य काॅलम ।
नया ज्ञानोदय में लगभग दस साल तक मासिक(बारामासी ,प्रत्यंचा ) काॅलम लिखा ।
राजस्थान पत्रिका में लगभग सात साल तक साप्ताहिक काॅलम ‘कनकही’ लिखा ।
दैनिक भास्कर में छह माह तक पाक्षिक व्यंग्य काॅलम लिखा ।
फिलहाल कथादेश में ‘बारहमासी’ नाम से मासिक व्यंग्य काॅलम।
तहलका में ‘ज्ञान है तो जहान है’ नाम के पाक्षिक काॅलम में स्वास्थ्य-शिक्षा वाले लेख ,लगभग चार साल तक ।
बाद में सत्याग्रह नामक वेब पत्रिका में यही हेल्थ काॅलम एक साल तक लिखा ।
कथेतर गद्य:
साक्षी है संवाद (राहुल देव द्वारा ज्ञान चतुर्वेदी से लंबा साक्षात्कार )(रश्मि प्रकाशन,लखनऊ),(2018)
ज्ञान है तो जहान है ( राजकमल प्रकाशन ,भोपाल )(स्वास्थ्य विषयक लेखों का संग्रह )
अन्य भाषाओं में अनुवाद :
बारामासी का अंग्रेजी अनुवाद ‘Alipura’ ,जगरनाॅट पब्लिकेशन , नई दिल्ली(2021)
कन्नड़ भाषा में एक व्यंग्य-संग्रह
शीघ्र प्रकाश्य
एक थे असु और एक थे वसु उर्फ दास्तान ए अंजनी चौहान (संस्मरणात्मक उपन्यास
पागलखाना का अंग्रेजी अनुवाद the mad house नियोगी बुक्स से
(हम न मरब और नरकयात्रा के अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशनपथ पर ।)
एक व्यंग्य संग्रह ज्ञान चतुर्वेदी की प्रेमकथाओं का (राजपाल एण्ड सन्स)
संस्मरणों की एक किताब
सात और व्यंग्य संग्रह
ज्ञान चतुर्वेदी को मिले कुछ उल्लेखनीय सम्मान और पुरस्कार :
राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान (मध्यप्रदेश सरकार)(2004-5),
गोयनका व्यंग्य भूषण पुरस्कार (2006)
दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी का राष्ट्रीय हास्य- व्यंग्य-सम्मान(2009-10)
हिंदी भवन दिल्ली का व्यंग्य श्री सम्मान , .
उत्तर प्रदेश सरकार का पदुमलाल पन्नालाल बख्शी अवार्ड(1995)
चक्कलस अवार्ड (1985)
अट्टहास शीर्ष सम्मान(2015)
उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान (2015)
लंदन का अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान
ढींगरा फाउंडेशन ,नार्थ कैरोलिना ,अमेरिका का का ढींगरा अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान(2015)
भारत सरकार का पद्मश्री सम्मान(2015)
लमही सम्मान (2017)
अमर उजाला का (शब्द) छाप सम्मान(2019)
वैली आफ वर्डस लिटफेस्ट , देहरादून का का कथा सम्मान(2019)
बैंगलोर लिटररी फेस्टिवल का 2021का ‘बेस्ट इंडियन फिक्शन आफ द इयर’ का ‘अट्टा- गलट्टा अवार्ड’, अलीपुरा को ।
रवीन्द्र नाथ त्यागी शिखर सम्मान , 2022
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय का मैथिली शरण गुप्त सम्मान 2023
और व्यास सम्मान (2022)
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