कविता कृष्णपल्लवी आज की कविता का एक ज़रूरी नाम हैं। कविता की कविता में व्यंग्य की धार दीखती है जो जीवन के विद्रूप पर प्रहार करती है। प्रतिबद्ध दृष्टि से लैस कविता उस क्रूर सत्य को उजागर करती हैं जो आज के समय में इंसान को इंसान के दरज़े से च्युत कर रहा है।
यहां विभिन्न रंग की कविताएं हैं जो हमारे अंदर एक विचार – यात्रा को रूप देती हैं। कवयित्री की बेबाकी कविता का वह ढब है जो भारतीय जातीय काव्य परम्परा की पहचान है।
-हरि भटनागर

कविता:

(एक)
रहस्योद्घाटन

जब बुराइयों की बारिश हो रही थी लगातार
और रह-रहकर यहाँ-वहाँ
क्रूरता के बादल फट रहे थे
सबकुछ तहस-नहस करते हुए,
वह मनुष्यता के भविष्य और
सुन्दरता की गरिमा और
प्यार की चाहत की अनश्वरता के बारे में
अद्भुत कविताएँ लिख रहा था।
कुछ कवि भी मारे गये
जब आम लोगों की हत्याएँ
आम बात हो चुकी थीं।
इन हालात को उसने बेहद दुखद बताया
और कवियों को अराजनीतिक होने
और मनुष्यता से प्रेम करने की सलाह दी।
लम्बा सुरक्षित और यशस्वी जीवन जीने के बाद
मरते समय वह सोच रहा था कि
उसकी कविताएँ ही याद रखी जायेंगी
और उसके राज़ हमेशा राज़ ही रहेंगे।
तभी डाकिया पार्सल का एक पैकेट लेकर आया
जिसमें ख़ून के सूखे धब्बों वाली कमीज़ें थीं,
दस्तानों की एक जोड़ी, एक खंज़र
और क्लोरोफॉर्म की एक शीशी
और कुछ दूसरी चीज़ें थीं
कविता की किताबों के साथ-साथ।
धरती से एक कवि की सुखद विदाई को
बेहद यंत्रणादायी बनाने के बाद
झुर्रियों से भरे, संत सरीखे
मृदुल चेहरे वाले उस डाकिये ने
पापों को स्वीकारने वाले किसी
मृत्युपूर्व बयान का मौक़ा तक नहीं दिया।
देखते ही देखते वह एक विशाल
पौराणिक पक्षी में बदल गया और
अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए
खुली खिड़की से बाहर उड़ गया
कवि को उसके गुप्त अपराधों के
पुख़्ता सबूतों के साथ
मरता हुआ, अकेला छोड़कर।
**

(दो)

एक बार एक देश था।

उसमें एक फासिस्ट था।
वह भाषण में शब्दों से खेलता था
कविताएँ भी लिखता था तुक जोड़-जोड़कर
इशारों-इशारों में मंतव्य प्रकट करता था
जिसे हत्यारे और दंगाई समझ जाते थे
और फिर वह हत्यारों और दंगाइयों को
मर्यादा में रहने के लिए
प्यार से झाड़ पिलाता था और फिर
ढेरों शरीफ़ लोगों के साथ हत्यारे और दंगाई भी
उसके प्रति श्रद्धा से भर जाते थे!

एक दूसरा फासिस्ट था
जो कुशल योजनाकार था और
इतना भावुक था कि मसाला फ़िल्में देखते हुए
फूट-फूटकर रोने लगता था।
वह पूरे देश में उन्माद की ऐसी लहर फैलाता था
कि बरसों सड़कों पर खून का सैलाब
उमड़ता रहता था रह-रहकर!

एक तीसरा फासिस्ट था
जो हत्यारों के गिरोह की सरदारी कर चुका था
और ऐतिहासिक हत्याकांड रच चुका था।
तीसरा फासिस्ट जब सत्ता में था
और देश एक आततायी अँधेरे में डूबा हुआ था,
तब पहला मरा लंबा बुढ़ापा झेलकर
और दूसरा सत्तासीन होने के टूटे सपनों के साथ
बलात आरोपित संन्यास में
रो-बिलख रहा था।

उस देश में कुछ जनवादी और वामपंथी लोग थे।
उनमें से कुछ हरदम मर्यादा में रहते थे
और संविधान और कानून-व्यवस्था से बेहद भावुक होकर प्यार करते थे।
वे इतने सहिष्णु, सहृदय और मानवतावादी थे
इतने सहिष्णु, सहृदय और मानवतावादी थे कि
पूछो मत !
और वे निरपेक्षतः सापेक्षवादी भी थे !
उन्होंने पहले फासिस्ट की उदारता और शालीनता
और सहिष्णुता की भूरि-भूरि प्रशंसा की
और उसकी मौत पर जार-जार आँसू बहाए।
उन्होंने दूसरे फासिस्ट के प्रति गहरी हमदर्दी जताई और
उसे पहले से ख़राब लेकिन तीसरे से काफी अच्छा बताया।
उन्होंने कहा कि अब इस देश में कुछ
बहुत अच्छा तो हो नहीं सकता,
अगर तीसरे वाले की जगह पहले वाले जैसा कोई
फासिस्ट मिलता,
या दूसरे वाले की ही मनोकामना पूरी हो गयी होती
सत्तासीन होने की
तो कितना अच्छा होता।

इसतरह देश के सबसे भद्र, सुसंस्कृत, शालीन, सदाशयी, शांतिप्रेमी
वामपंथी, प्रगतिशील राजनेताओं और बौद्धिक जनों ने
अपने सापेक्षवादी विचारों से और गहन सरोकारों से
अपने देश के आम जनों को समृद्ध बनाया
और अनुगृहीत किया।
कल अगर कोई चौथा फासिस्ट आएगा सत्ता में
बर्बरता की साक्षात् मूर्ति, एक वहशी हत्यारा,
पूँजी का और भी नंगा वफ़ादार चाकर
तो उस देश के वामपंथी राजनेताओं और बौद्धिक जनों का यह समूह
उसके मुकाबले तीसरे फासिस्ट को बताएगा
थोड़ा बेहतर और सापेक्षतः अधिक मानवीय
और इसतरह कुछ बेहतर की उनकी चाहत बनी रहेगी
और तलाश जारी रहेगी!
**

(तीन)
मंजू और असगर की दुश्वारियाँ

हिन्दी में उस रात पूरी हुई थी
इस वर्ष की 3745वीं प्रेम कविता
हमारे समय की तमाम बेरहमी
और बेशर्मी के चमकते-दमकते उजाले में ।
निष्पाप और निष्कलंक थीं ये कविताएँ,
अलौकिक आभा से आलोकित,
जिनमें राजनीति की कोई असुंदर, कर्कश
मिलावट नहीं थी।
उसी रात, साल के 111वें कविता महोत्सव का
समापन हुआ था और वर्षान्त तक सत्तासी और
ऐसे महोत्सव अभी होने थे।
ठीक उसी रात एक टेंट लग रहा था
रोशनाबाद कचहरी के सामने
जहाँ अगले दिन कोई एनजीओ
ग़रीबों को खाना बाँटने वाला था।
ठीक उसीसमय पहाड़ों में बादल फटने से
कुछ बस्तियों के तबाह होने की
ख़बर आ रही थी
और सिडकुल में बिजली के सामान बनाने वाली
एक फ़ैक्ट्री के बाहर एक पखवाड़े से
धरना दे रहे मज़दूरों पर लाठियाँ बरसाते हुए
पुलिस उनका टेंट उखाड़ रही थी।
दूर किसी मंदिर के लाउडस्पीकर से
‘मंगल भवन अमंगलहारी’ की आवाज़ें
आ रही थी
और सड़क किनारे अँधेरे में खड़े
नीम के भीगे हुए पेड़ से
पानी से अधिक उदासी टपक रही थी।
वहाँ से डेढ़ किलोमीटर दूर एक
बैटरी कारखाने के अहाते में
पीछे जहाँ लाइन से
एसिड के कंटेनर रखे हुए थे
वहाँ आसपास की कुछ घास जली हुई थी
और कुछ पीली पड़ गयी थी।
वहीं पीली बीमार रोशनी में रात ग्यारह बजे
साथ बैठकर रोटी खा रहे थे असगर और मंजू।
दोनों के काम का आज यहाँ आखिरी दिन था।
ठेकेदार ने हिसाब करने के लिए बुलाया था
हफ़्ते भर बाद।
इस बीच उन्हें अगला काम ढूँढ़ना था
और रोज़ाना लेबर चौक पर खड़ा होना था फिर से।
मंजू रहती थी रोशनाबाद की मज़दूर बस्ती में
और असगर पठानपुरा में जिसे अब सभी
‘छोटा पाकिस्तान’ कहते हैं।
साल भर से प्रेम करते थे मंजू और असगर।
प्रेम में कविता लिखना तो नहीं सोच सकते थे दोनों,
बस अपनी चिन्ताओं और परेशानियों को
आपस में साझा कर लिया करते थे।
सुख के नाम पर इतना ही सोच पा रहे थे फ़िलहाल
कि दोनों को एक ही फ़ैक्ट्री में फिर से मिल जाता कोई काम
तो कितना अच्छा होता!
थाने का खबरी था मंजू का भूतपूर्व पति
जो दारू के नशे में टुन्न मज़दूर बस्ती में ही
डोलता रहता था।
जब भी टकराता था मंजू से
गाली-गलौज करता था और फिर
ढाई पसली के उस पियक्कड़ की हृष्ट-पुष्ट मंजू
ठीक से कुटाई करती थी।
मंजू और असगर ने अबतक होशियारी से
छुपा रखा था अपना प्रेम
क्योंकि वैसे भी चारों ओर लव जेहाद का
शोर था और मंजू का पूर्व पति आजकल
बड़ा सा टीका लगाये, सिर पर भगवा गमछा लपेटे
बजरंगियों के साथ घूमने लगा था।
इसी ऊहापोह में डूबे बतिया रहे थे दोनों प्रेमी
एसिड के कंटेनरों के पीछे बैठे जली हुई घास पर
आधी रात को।
बर्बरता के सैलाब में डूबने से वे अपना
प्रेम बचाना चाहते थे हर क़ीमत पर
जो उत्कट था लेकिन कविता की भाषा में
उसे कहना न तो उन्हें आता था
न ही उन्हें यह पता था कि काल्पनिक, मिथकीय खलपात्रों से प्रेमपत्र बचाने की
नाटकीय चिन्ता के बयान को,
वास्तविक संकट के मिथकीकरण को,
प्रेम पारखी विद्वत्समाज
एक उच्च कोटि की प्रेम कविता का ताज़
पहना सकता है और
ऐसी प्रेम कविता एक ऊँट या एक मेंढक को भी
दिल्ली दरबार तक पहुँचा सकती है और
हत्यारे उन्हें न सिर्फ़
अभयदान बल्कि यश और सुविधाओं से
भरा जीवन भी दे सकते हैं।
मंजू और असगर न तो यह जानते थे
न ही उनके पास कविता की ऐसी अद्भुत कला थी।
सवाल यह था कि हत्याओं और आतंक के
इस माहौल में प्यार करते हुए
साथ-साथ जी पाने के लिए
भागकर आख़िरकार जाते भी कहाँ मंजू और असगर!
आख़िरकार कैसे ढूँढ़ पाते
प्रेम का एक सुरक्षित कोना
देश के ओर-छोर तक फैले
बर्बरता के इस शक्तिशाली साम्राज्य में
वे दो मज़दूर स्त्री-पुरुष सिर्फ़ अपने बूते!
सो उन्होंने टिके रहने और हालात का
सामना करने की सोची उस रात
जिस रात हिन्दी की साल की 3745वीं
प्रेम कविता लिखी गयी थी।
उन्होंने टिके रहने और मुक़ाबला करने की सोची,
कोर्ट मैरिज कर लेने के बारे में सोचा,
और सोचा अपने जैसे नौजवानों को साथ लेने के बारे में
और वहशी नफ़रती गैंग का सामना करने के बारे में।
ऐसे नौजवानों का पता उन्हें हाल ही में चला था
जो भगतसिंह, अशफ़ाक़उल्ला, ज्योतिबा वगैरा की
बातें करते थे, लाइब्रेरी चलाते थे,
मज़दूरों में पर्चे बाँटते थे
और बहुत कुछ करते रहते थे।
कठिन था यह फ़ैसला लेकिन सच्चे प्यार में
कठिन फ़ैसला तो क्या मरने का जोखिम भी
मामूली लगता है,
वह प्यार चाहे प्रेमिका से हो, या अपने लोगों से,
या फिर अपने उसूलों से।
गनीमत यह थी कि मंजू और असगर को
नहीं जानते थे हिन्दी के नामचीन कवि,
वरना आप ही सोचिए, वे इन लोगों को
कितना धिक्कारते और फटकारते
नफ़रत का जवाब प्यार से नहीं देने के लिए
और अहिंसा को अपना पहला सरोकार
नहीं बनाने के लिए
और एक असंभव सा दुस्साहसवादी
फ़ैसला लेकर अपनी जान
और बस्ती के अमन-चैन को
जोखिम में डालने के लिए!
**

(चार)
ताज्जुब नहीं कि इस बात पर भी मॉब लिंचिंग हो जाये!

“बहनजी, आप तो मुसलमानों जैसी बातें कर रही हैं! ”
कहा उस आदमी ने
और मैने महसूस किया कि हालात
कितने ख़ौफ़नाक हो चुके हैं!
“इलाहाबाद तक जा रहे हैं आप भी?”
“प्रयागराज जा रहा हूँ।”
— खिड़की से बाहर देखते हुए
जवाब दिया उपेक्षापूर्वक
सामने के बर्थ पर बैठे आदमी ने।
जैसे-तैसे बात कुछ चली ही थी कि
किसी प्रसंग में
मैंने इक़बाल का एक शेर पढ़ दिया
और सामने बैठा दूसरा आदमी नफ़रत से
मुझे घूरते हुए बोला, “यही बात बेहतर तरीके से
कही जा सकती थी प्रसाद और
मैथिली शरण गुप्त के हवाले से।
और गुसाईं जी की तो बात ही क्या!
क्या ऐसा है जो सबसे सुंदर ढंग से
नहीं कह गये तुलसी बाबा!”
फिर जैसे अचानक जगी कोई प्रेरणा
और ऊपर की बर्थ पर बैठे सज्जन
सुन्दर काण्ड का पाठ करने लगे।
और मैने सोचा कि हिन्दी साहित्य पर
इतने ख़तरनाक ढंग से सोचा जा सकता है
ऐसे तो मैंने कभी
सोचा ही नहीं था!
**
(पाँच)
भाषा का डर

तीन साल बाद अनवर रोशनाबाद से निकला था ।
राबिया और रफ़ीक़ के साथ ट्रेन में
सफ़र कर रहा था ।
रिज़र्वेशन भी कराया था इसबार ।
हरिद्वार से छपरा तक लम्बा सफ़र था ।
खाना-पानी सब साथ था ।
डिब्बे में बैठा हुआ अनवर
खिड़की से सटकर खड़े सात साल के बेटे को
स्टेशन के छोर पर लगे बोर्ड पर
हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू, तीनों भाषाओं में लिखे
स्टेशन का नाम पढ़वाता था ।
बेटा पढ़ देता था जोड़-जोड़कर, थोड़ा रुक-रुककर
और राबिया निहाल हो जाती थी कि हाय रे,
इत्ता छोटा सा तो है मेरा गुड्डा और तीन ज़ुबान
पढ़-बोल लेता है ।
राबिया की ख़ाला का इंतक़ाल हो गया था
और अनवर फ़ैक्ट्री से छुट्टी लेकर
ससुराल जा रहा था बीवी-बच्चे के साथ ।
सामने की सीट पर बैठे चार लोगों में से एक ने
पहले अपनी आस्तीन चढ़ाई,
फिर मूँछों पर ताव देते हुए बोला,
हिन्दुस्तान में सिर्फ़ हिन्दी भाषा ही चलनी चाहिए ।
दूसरे ने कहा, संस्कृत जिन भाषाओं की जननी है
वो सब भी चलनी चाहिए ।
तीसरे ने कहा, हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है
लेकिन हिन्दुस्तान में रहने वाले हर आदमी को
हिन्दी ही लिखना-बोलना चाहिए,
क्योंकि हिन्दुस्तान सबसे पहले हिन्दुओं का देश है ।
उर्दू-अरबी-फारसी पर तो एकदम बैन लग जाना चाहिए ।
किनारे बैठे आदमी के हाथ में एक हिन्दी अख़बार था
जिसमें हरियाणा के बाद बिहार के सिवान ज़िले में
गोतस्करी के शक़ में एक शख़्स को भीड़ द्वारा
पीट-पीटकर मार डालने की ख़बर थी ।
अनवर सोच रहा था कि क्या अब गाय की तरह
भाषा भी भीड़ के हाथों पीट-पीटकर
मार दिये जाने का सबब बन जायेगी!
राबिया बस डरी थी, कुछ नहीं सोच रही थी
और दूसरी ओर बैठा एम. ए. हिन्दी का एक छात्र
सिर्फ़ यह याद करने की कोशिश कर रहा था कि
भाषा के इस सवाल पर भारतेंदु, रामचन्द्र शुक्ल,
महावीर प्रसाद द्विवेदी, डा. नगेन्द्र,
हजारीप्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह,
और पंडित विद्यानिवास मिश्र आदि
विद्वानों के क्या विचार थे!
**
(छ:)
धन्य हैं हम कि इस समय के साक्षी रहे!

ये इक्कीसवीं सदी के शुरुआती सौभाग्यशाली दशक थे
जब विकटतम तिमिराच्छन्न दिनों के बावजूद
हिन्दी भाषा के सभी अच्छे कवि
इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि फ़ासिस्ट और हत्यारे तक
उनकी कविताई के क़ायल थे।
उनके दिल इतने अच्छे थे, इतने अच्छे थे
कि उन्हें हत्यारों से, फ़ासिस्टों से,
भँड़वों से या दलालों से कभी
किसी तरह की घृणा महसूस ही नहीं होती थी।
बल्कि उनके दिलों में बेइख्तियार मुहब्बत
उमड़ पड़ती थी।
वे इतने भले थे कि बुराइयों को देखना
बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे
और बुरी से बुरी बुराई में भी
अच्छाई देख लेते थे।
कविता की कला को लेकर वे इतने
संवेदनशील थे कि कहते थे कि हमें तो
अच्छी और कलात्मक कविता का
मुरीद होना चाहिए चाहे वह कोई
प्रचंड ब्राह्मणवादी लिखे या कोई कोठे का दल्ला
या कोई हत्यारा या फ़ासिस्टों का कोई दरबारी
या कोई दुर्दांत दुराचारी या बर्बर बलात्कारी।
उनके हृदय में इतना प्रेम होता था लबालब
कि किसी स्त्री को देखते ही छलक पड़ता था
और वे दुनिया की तमाम स्त्रियों के दुख से
हमेशा दुखी रहा करते थे।
वे इतने शान्तिप्रिय थे कि किसी भी तरह की
हिंसा उन्हें असहनीय लगती थी और इसलिए
उस ओर देखते ही नहीं थे और हमेशा
शान्ति की और प्यार की बातें करते रहते थे।
वे इतने उदारमना थे कि आमंत्रण मिलने पर
नहा धोकर वहाँ भी जीमने पहुँच जाते थे
जहाँ जनसंहार के बाद ख़ून सने हाथों से
पूरियाँ-कचौरियाँ परोसी जा रही होती थीं।
परंपरा और इतिहास से इतना था लगाव उन्हें कि
मार्क्स और लेनिन और
अक्टूबर क्रांति की वर्षगाँठ के अतिरिक्त
अपने पिता के जनेऊ-खड़ाऊँ
और माता जी के छठ व्रत और तीज-त्योहार को
याद करते हुए उन्होंने अभिभूत कर देने वाली
बीसियों कविताएँ लिखीं थीं।
उनके जीवन जीने और
उनकी कविता की कला में जादू था इतना कि
कब वे बाँये बाजू से दाँये बाजू
और दाँये बाजू से बाँये बाजू चले जायेंगे,
कब नेरूदा के साथ शराब पीते और कब
चित्रकूट के घाट पर तुलसीदास से
चरणामृत ग्रहण करते
और कब अशोक वाजपेयी के साथ वसंत विहार
करते देखे जायेंगे,
कब प्राक्-आधुनिक, कब आधुनिक और कब
उत्तर-आधुनिक हो जायेंगे,
कब ‘इंटरनेशनल’ गाते-गाते
‘रघुपति राघव राजा राम’ गाने लगेंगे,
या कबीर के पद गाते-गाते
सुन्दरकाण्ड का पाठ करने लगेंगे,
यह महानतम मार्क्सवादी आलोचक भी
नहीं समझ पाते थे और इसलिए मुग्ध होकर
उनके लिए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पुरस्कारों की
अनुशंसा कर देते थे।
एक गोष्ठी में तमाम दस्तावेज़ी साक्ष्यों के साथ
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के उत्तमोत्तम
जनवादी और प्रगतिशील माने जाने वाले
दो दर्जन कवियों ने एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया
और बताया कि पिताजी की साइड से तुलसीदास
और माताजी की साइड से कबीरदास
उनके महान पूर्वज थे!
**

(सात)

अजातशत्रु

जिनका कोई शत्रु नहीं होता
उनका कोई पक्ष नहीं होता I
जिनका कोई शत्रु नहीं होता
वे किसी के मित्र नहीं होते I
वे कभी सच के और न्याय के पक्ष में
खुलकर खड़े नहीं होते
और ग़लत को ग़लत कहने का
जोखिम नहीं मोल लेते I
वे हत्यारे के सम्मान में आयोजित सभा से
उठकर
उस व्यक्ति की शोकसभा में चले जाते हैं
जिसकी हत्या हुई रहती है
और क्रांति और शांति की
आतुर पुकार भरी एक कविता लिखने के बाद
फ़ासिस्टों और तानाशाहों से
पुरस्कार लेने चले जाते हैं I
जो सर्वप्रिय और अजातशत्रु होते हैं
वे दरअसल धूर्त, मतलबी और
बेहद ठण्डे, क्रूर और कायर किस्म के
लोग हुआ करते हैं I
संत की निर्विकार मुद्रा ओढ़े हुए
निरंतर मानवता, करुणा और शान्ति की
बातें करने वाले ऐसे लोग
भेड़िये जैसे मक्कार होते हैं I
जिनका कोई शत्रु नहीं होता
वे दरअसल न्याय और मनुष्यता के
शत्रु होते हैं I
**

(आठ)
एक समकालीन मतिभ्रम

पता नहीं, ख़राबी मेरी आँखों की है
या दिमाग़ की,
या ज़माने की!
हिन्दी के ऋषितुल्य उन महान आचार्यों को
जब इनदिनों पढ़ती हूँ
जो प्रगतिशीलों और जनवादियों के
प्रणम्य रहे,
और कई विश्वविद्यालयों और संस्थानों की
शोभा बढ़ाते रहे जीवनपर्यन्त,
तो हिन्दी नवजागरण को
हिन्दू नवजागरण पढ़ लेती हूँ,
और हिन्दी जाति को हिन्दू जाति!
माथा कुछ ऐसा घूम गया है कि
लोक जागरण से भगवती जागरण की
याद आने लगती है
और जनमानस से रामचरितमानस की!
संगोष्ठियों में जाती हूँ तो लगता है कि
माता की चौकी सजी है
और जगराता हो रहा है!
यह कैसा मेटामार्फोसिस कि
हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ते हुए
मेरे भीतर भक्ति भावना
उमड़ने-घुमड़ने लगती है
और मतिभ्रम ऐसा कि
सौ के नोट को तो छोड़िए
मुझे तो हिन्दी विभागों और
अकादमियों के मुख्य द्वारों पर भी
लक्ष्मी-गणेश के फोटू
दीखने लगे हैं!
**

(नौ)
तानाशाह जब हँसता है
जब वह हँसता है
तो बस्तियों में खून की बारिश होने लगती है !
जब वह रोता है
तो गलियों में, सड़कों पर
खून की धाराएँ बहने लगती हैं !
जब वह बोलता है
तो श्मशान में कुत्ते रोने लगते हैं !
उसकी चुप्पी में लोगों को
मौत का सन्नाटा सुनाई देता है !
उसका डर जितना बढ़ता जाता है
लोगों पर उसका कहर भी
उतना ही बढ़ता जाता है !
**

(दस)
तानाशाह का रोना
तानाशाह जब रोता है
तो लोग खून के आँसू रोते हैं
तानाशाह जब हँसता है
तो लोग खून के आँसू रोते हैं
तानाशाह पुचकारता है, ललकारता है,
वायदे करता है, तरक़्क़ी के
सपने दिखता है, जंगल-जंगल घूमकर
फोटू खिंचाता है, गुब्बारे और तितलियाँ
उड़ाता है, गप्पें हाँकता है, देस-देस की
सैर करता है और विदूषकों और अहमकों जैसी तमाम हरकतें करता है
और लोग लगातार बस खून के आँसू
रोते रहते हैं ।
तानाशाह का होना मात्र ही इस बात की गारण्टी है कि लोग खून के आँसू
रोते रहेंगे ।
तानाशाही के मौसम में सुबह घास पर
जो ओस पड़ी होती है वह
वनस्पतियों और पक्षियों के खून से मिलकर लाल हो गयी होती है ।
लोग जब जान जाते हैं कि वे
क्यों खून के आँसू रोते हैं
तब तानाशाह खून के आँसू रोता है ।
**

(ग्यारह)
तानाशाह का नया फ़रमान

तानाशाह ने तय किया है कि वह
अब अपनी जनता ख़ुद चुनेगा !
तानाशाह चाहता है कि मुल्क में
सिर्फ़ झुकी नज़रों और झुकी पीठ वाले
लोग ही बचे रहें उसका जैकारा बोलते हुए !
तानाशाह अपने कारकूनों को
समूची जनता का रजिस्टर तैयार करने के लिए
कहता है ताकि रोज़
उनकी हाजिरी ली जा सके !
तानाशाह आदेश देता है कि
जिनकी वफ़ादारी संदिग्ध है उन्हें
जहाज़ों में बैठाकर समंदर में छोड़ दिया जाए
या फिर नज़रबंदी शिविरों में डाल दिया जाए !
तानाशाह आसपास के देशों से
वफ़ादार जनता के आयात के लिए
फ़रमान जारी करता है !
बौखलाए हुए मजबूर लोग फिर भी जब
सड़कों पर उतरते रहते हैं
तो तानाशाह देश की रक्षा के लिए
जनता के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा कर देता है !
आवाज़ों को कुचलने के बाद तानाशाह
लोगों की चुप्पी से डर जाता है !
लोगों की चुप्पी में उसे अपनी मौत की
अनुगूँजें सुनाई देने लगती हैं !
तानाशाह सोते हुए बच्चों तक पर
शक़ करता है कि न जाने वे क्या
सपना देख रहे हैं !
वह उनके सपनों की जासूसी के लिए
उनकी नींद में उतर जाना चाहता है !
तानाशाह के सपने में रोज़
साँय-साँय करता एक वीरान क़ब्रिस्तान
आता है जहाँ अपनी क़ब्रों से उठकर
इतिहास के तमाम तानाशाह उसके पास आते हैं
प्यार से उसकी पीठ सहलाते हैं
और बताते हैं कि उन्होंने भी उसीकी तरह
सोचा था और वही किया था
जो वह कर रहा है !
**

(बारह)
बेवजह की चिन्ताओं की अहमियत

कहीं लाउडस्पीकर पर बार-बार
अनाउंसमेंट हो रहा है,
“तिरबेनी जहाँ कहीं भी हों
अगर यह आवाज सुन रहे हों
तो फौरन से, जल्दी से जल्दी,
तेंतरी की माई से
भगतजी की गुमटी पर मिल लें!”
कभी किसी बात से हमारा
कुछ भी लेनादेना नहीं होता
या कोई मामूली सी ही बात होती है
लेकिन उसे लेकर हम बेहद
परेशान हो जाते हैं.
जैसे अब भिनसार होने को आयी,
मेले की आवाज़ें शांत हो चुकी हैं,
रोशनियाँ बुझ चुकी हैं
और मैं लगातार यही सोचे जा रही हूँ कि
तिरबेनी तेंतरी की माई से मिले या नहीं,
या तेंतरी की माई को तिरबेनी से
क्या ऐसा अर्जेण्ट काम आन पड़ा था,
या तिरबेनी तेंतरी की माई की परेशानी
दूर कर पाये या नहीं… वगैरा-वगैरा…
कभी-कभी हम उन लोगों के बारे में भी
बहुत फ़िक्रमंद और परेशान हो जाते हैं
जिनसे हमारी जान-पहचान तक नहीं होती!
कितना भी बुरा और ठण्डा वक़्त हो
अपरिचित लोगों की परेशानी भी कई बार
कम से कम कुछ लोगों को तो
परेशान कर ही देती है!
तभी तो कहती हूँ कि न तो
इतना नाउम्मीद होने की ज़रूरत है
और न ही एकदम से
हिम्मत हार जाने की कोई बात है!
**

(तेरह)
जूतों पर एक काव्यात्मक विमर्श
( पूर्व-कथन — कुछ दोस्तों ने कहा कि राजनीति और
विचारधारा छोड़ कुछ दूसरे विषयों पर भी
कुछ गप-शप किया करो कभी-कभी I
सो मैं सोचती हूँ इससमय कि
जूतों को लेकर की जाएँ कुछ बातें ! )

*
जूते यात्राओं से कभी थकते नहीं I
धरती नापते हुए
उनका जीवन घिसता रहता है I
जूते कभी शिकायत नहीं करते
बीहड़ रास्तों की I

*
यात्राओं के अलावा
जूते पसंद करते हैं
कमीने और घटिया लोगों के
सिरों और पीठों पर बरसना I
पर जूते आज़ाद नहीं होते I
दुनिया के सबसे घटिया लोग
सबसे सुन्दर जूते पहनते हैं
और आम लोगों को रौंदते हुए
चलते हैं I
खदेड़े जाने पर वे जूते छोड़कर भागते हैं I
जूते बेक़रारी से
उस दिन का इंतज़ार करते हैं I

*
सबसे अभागे और उदास होते हैं
पूरी ज़िन्दगी एक ही राह
चलते रहने वालों के जूते,
ताउम्र घर से दफ़्तर
दफ़्तर से घर की दूरी
तय करते रहने वाले जूते I
दिवंगत महापुरुषों के जूतों के
जीवन का सबसे बुरा दिन
तब आता है जब कोई कूपमंडूक
उनमें घुसकर श्रद्धापूर्वक
सो जाता है I

*
तोल्स्तोय अपनी मर्ज़ी से पहनते थे
गँवई किसानों जैसे जूते
और युवा गोर्की को मुफ़लिसी के दिनों में
यहाँ-वहाँ भटकते हुए
सबसे अधिक जिन चीज़ों की
चिंता करनी पड़ती थी
उनमें उनके सस्ते जूते भी शामिल थे I
अलास्का की बर्फ़ ढँकी वादियों में
शायद अभी भी कहीं दबे पड़े होंगे
जैक लंडन के छोड़े हुए स्नो-बूट I
तस्वीरों में मौजूद प्रेमचंद का
फटा हुआ जूता आज भी गवाही देता है
एक लेखक के साहस और
ईमानदारी के पक्ष में I

*
जूतों के जीवन पर सोचने के लिए
ऐसे समाज में लोगों के पास
भला कैसे समय होगा
जहाँ लोग अपने जीवन के बारे में भी
कुछ सोच नहीं पाते और इतिहास से
कुछ भी सीख नहीं पाते I
मुझे लगता है, इसतरह कविता में जूतों को लाकर
मैं कोई क़र्ज़ उतार रही हूँ
या एक किस्म का
कृतज्ञता-ज्ञापन कर रही हूँ
और साथ ही, कविता को मामूलीपन का
यशस्वी मुकुट पहना रही हूँ I

*
जूते युद्ध का मैदान कभी न छोड़ने वाले
योद्धा के समान होते हैं I
कहीं गली में, या पार्क में, या कूड़े के ढेर पर पड़े
एक अकेले जूते के पास बताने को
एक पूरा इतिहास होता है
और कई रोचक यात्रा-वृत्तांत I
कुत्ते उसमें सूँघते हैं
शायद विस्मृत जीवन की कोई गंध
और उससे खेलते हैं ।
नुक्कड़ का बूढ़ा मोची
उसे उठा ले जाता है
और उसके अलग-अलग हिस्सों को
दूसरे घायल जूतों की मरम्मत में
खर्च कर देता है ।
*
( उत्तर-कथन — तो देखिये नागरिको, बातें अगर
जूतों पर भी हो
तो आ ही जायेंगे आपके विचार
जीवन, समय और समाज के बारे में,
बशर्ते कि आप सोचने और महसूस करने की क्षमता
परित्यक्त जूतों की तरह
कहीं छोड़ न आये हों ।
और हालात अगर ऐसे ही बने रहे
तो वह दिन दूर नहीं जब
राजनीति पर आपको
जूते, छड़ी,झोला,चश्मा, घड़ी
या किसी और छोटी-मोटी चीज़ के बहाने
बात करनी पड़े
और फिर भी आप की सुरक्षा की
कोई गारंटी न हो। )
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कविता कृष्णपल्लवी:

विगत ढाई दशकों से भी अधिक समय से क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़ी राजनीतिक ऐक्टिविस्ट का जीवन।
सम्प्रति हरिद्वार में स्‍त्री मजदूरों के बीच काम और देहरादून में सांस्कृतिक सक्रियता ।
बरसों कविताएँ छिटफुट लिखने और नष्ट करने के बाद 2006 से नियमित कविता-लेखन ।
हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित ।
नेपाली, मराठी, बांग्ला, अंग्रेज़ी और फ्रेंच में कुछ कविताएँ अनूदित ।
एक संकलन ‘नगर में बर्बर’ वर्ष 2019 में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित ।
‘अन्वेषा’ वार्षिकी 2024 का सम्पादन किया जो काफ़ी चर्चित रहा ।

kavita.krishnapallavi@gmail.com
मो. 9971158783.


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