निराला ने छंद में मानीख़ेज़ कविताएं लिखीं। छंद से मुक्ति भी निराला ने की। कविता और कवि ,निराला का कर्ज़ कभी चुका नहीं सकते।सो आज पहले उनकी ग़ज़लों को याद करते हैं।दोआब की परंपरा के वे अज़ीम शायर हैं –
आंखें वे देखी हैं जबसे
और नहीं देखा कुछ तबसे
एक और शेर है
निगह तुम्हारी थी
दिल जिससे बेक़रार हुआ
बसंत के ख़ुशगवार मौसम में ये ख़ुशलफ़्ज़ हैं निराला के। दो छोटी बहर की ग़ज़लों के शेर में आशिक़ और मेहबूब दोनों की मुहब्बत आंखों को देखने से बयां हुई हैं।
उर्दू शायरी से मुझे मुहब्बत है। न इसे लिखना जानता हूं न पढ़ना। हिंदी में छपे तर्जुमा पढ़ता हूं।और कुछ सोचने में बना रहता हूं।लो मुझे बात शुरू करते ही मीर याद आए –
हुस्न तो है ही, करो लुत्फ़े -ज़बां भी पैदा
मीर को देखो कि सब लोग भला कहते हैं
तो दोस्तो लुत्फ़े-ज़बां देखिए।इतनी मिठास । उर्दू में गुफ़्तगू हो रही हो तो आप एकाएक ठिठक और ठहर जाते हैं।बातचीत शुद्ध उर्दू में नहीं हिंदुस्तानी में होती है।यानि हिंदी और उर्दू का दोआब।यानि वह ज़ुबान जो विरसे में मिली है।इसका अपना हुस्न है। अमीर ख़ुसरौ इसका फ़न जानते थे। खड़ी बोली का आविष्कार उन्हीं के नाम है।ख़ुसरौ हिंदी,हिंदवी और फ़ारसी में लिखते थे।खड़ी बोली को उन्होंने इतिहास में ऊंचा मक़ाम दिया।वे हमारे पहले पुरखे हैं। ये दिलकश बानगी देखें –
१
ख़ुसरौ बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे, हारी पी के संग
२
आ साजन मोरे नैनन में सो पलक ढाप तोहे दूं,
न मैं देखूं और को ,न तोहे देखन दूं।
मीर भी दोआब के इस हुस्न के शायर हैं। लोग उनके भीतर के इंसान और शायर दोनों से प्यार करते हैं । ख़ुसरौ और मीर नाम नहीं ,भाषा की परंपरा भी हैं। हम इस परंपरा के वारिस हैं। और यह परंपरा भाषा में खिल कर अब और भी ख़ूबसूरत हो गई है। इसकी लज़्ज़त देखिए।लगता है बोलने वाला भाषा की मौसिक़ी में बोलने से आगे गुनगुना रहा है। उसमें एक रिदम बहती सुनाई पड़ती है। एक तो यह भाषा को लेकर ,विरासत की यहां एक बात है जो २१ वीं सदी तक बदस्तूर मौजूद है। भारतेन्दु, निराला, त्रिलोचन ,शमशेर हैं जो ग़ज़लें कहते हैं। दुष्यंत कुमार तक होती हुई इस उर्दू भाषा की परंपरा हिंदी में चली आती है।और साथ-साथ वली दकनी से होती हुई यह ट्रेडीशन निदा फ़ाज़ली में चली आती है। जब आप उर्दू कविता की बात करते हैं तो ,आम आदमी उसे हिंदुस्तानी समझता है।मुशायरे और कवि सम्मेलन में आप दोआब की परंपरा देखते हैं।निदा फ़ाज़ली का एक शेर समात फ़रमायें –
राक्षस था,न ख़ुदा था पहले
आदमी कितना बड़ा था पहले
अब राक्षस का प्रयोग उर्दू ग़ज़ल में देखें। तो हिंदी ही नहीं अंग्रेजी के शब्द भी भाषा में घुल-मिल कर इसमें चले आते हैं। दुष्यंत कुमार कहते हैं –
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
यहां रेल ,उर्दू और हिंदी, में बिना किसी भेद-भाव के चली आती है। तो भाषा में बोलियों,लोक भाषाओं , विदेशी भाषाओं से शब्द सहज रूप आकर बस जाते हैं।मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि भाषा सेकुलर होती है। जो लेखक भाषा में सेकुलर नहीं होता,वह मेरी नज़र में साम्प्रदायिक है।इस वक़्त मुझे फ़ज़ल ताबिश साहब की एक नज़्म याद आ रही है –
नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी
नहीं चुना मैंने वो घर जो ख़ानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मज़हब जो मुझे बख़्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो ज़ुबान जिसमें मां ने बोलना सिखाया
और अब मैं इन सबके लिए तैयार हूं
मरने-मारने पर
इस नज़्म से छलकते दर्द की इंतिहा समझिए और उसके भीतर से बोलते सरोकार को।यह समाजी है।रियल है ,फ़िल्म की रील नहीं है।ये वर्चुअल रियलिटी नहीं हैं, आभासीय नहीं है ।दिल की गहराइयों से निकली, लहू से लिखी कविता है।ऐसी कि पाकिस्तान में भी ,न कहो किसी हिन्दू कवि की आत्मा पर ,ऐसी ही शदीद तकलीफ़ में वह लिखी गयी हो।मैं कहना चाहता हूं कि उर्दू कविता आज से मुख़ातिब है। इसमें ठीक अभी भोगे जा रहे सच की तस्वीरें हैं।शीन काफ़ निज़ाम साहब कहते हैं –
गोद में माओं की बच्चे रात भर रोते रहे
पास पूतोंवालियों के क्या कोई क़िस्सा न था
निज़ाम साहब की इस बयानी में जो हक़ीक़त है वो हमारे समाज का सूरते- हाल है ।उनके अहसास की दौलत में हमारे दुखते-पिराते दुख-सुख हैं। नाकामियां और बैचेनियां हैं।उदास मंज़रों का तज़्किरा है।उनके दौर की शायरी इश्तिहारी नहीं है। वे मुस्लिम नहीं है लेकिन लबो लहजे में सूफ़ीयाना ईमानदारी है। उनकी ग़ज़लें और नज़्में हिंदुस्तानी मिट्टी की दास्तान हैं।
और यह दास्तान-ए-सच उनके समकालीनों में अलग-अलग रंगों में नुमाया है। जयंत परमार की दलित कविता में आग हुए ,सच को देखें-
एक दिन/मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ कर/तुम्हारे हाथों में थमा दूंगा।
ठीक वैसे ही जैसे तुमने/चाबुक मार-मारकर मेरे पिता को नंगा किया था
वज़ीर आगा साहब का ताल्लुक़ पाकिस्तान से है।वे आधुनिक कविता की इबारत लिखने वालों में शुमार हैं।अपने ज़माने की कविताओं की थियरी को मक़ाम देने वालों में वे अव्वल माने जाते हैं। उनके दो -एक शेर आपकी नज़र करता हूं –
१
मंज़र था राख और तबियत उदास थी
हर चंद तेरी याद मिरे आस-पास थी
२
तुम गोद से ज़मीन के उतरे तो हो मगर
खेलोगे साथ किस के ख़ला के ग़ुबार में
वज़ीर साहब हमारे ज़माने के अहम ग़ज़लगो हैं। यूं देखें तो कविता का एक ज़रूरी काम जनजागरण है।चाहे वह हिंदी की रवायत में हो या उर्दू और दूसरी भाषाओं में।वह दो ज़बानों,दो क़ौमों और दो धर्मों के गुणों को ध्यान में बराबर अपनी ज़मीन को पुख़्ता बनाने की फ़िक्र में होती है।याद आता है वली दकनी जिन्हें उर्दू शायरी का बाबा आदम कहा जाता है , इस मौजू पर कहा था –
१
शहर भीतर जो आवे नहान का दिन
हिंदू की क़ौम के अश्नान का दिन
२
ऐ सनम तुझ जबीं उपर ये ख़ाल
हिंदु-ए-हरिद्वार बासी है
तो इस उदात्त परंपरा को देखें जो नज़ीर तक मिलती है।उनके आंगन में हिंदू देवताओं ,तीज -त्यौहारों की जो तस्वीरें हैं,वे कहीं और नहीं। हमने इन्हीं विश्वासों में हिंदोस्तान को जाना है ।ये शीराज़ा आज बिखर रहा है।यह सब पालिटिकल हैं,हम जानते हैं और धार्मिक विभाजन के ख़िलाफ़ हैं। शमशेर ने अपनी नज़्म में कहा है –
ईश्वर ,अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की तो तू मुझसे नाराज हो जाएगा
अल्लाह,यदि मैंने संस्कृत में संध्या पर ली,तो तू मुझे दोज़ख में डालेगा
लोग तो यही कहते घूम रहे हैं ,तू ही बता ईश्वर,तू बता मेरे अल्लाह
शमशेर ने ग़ज़लें भी लिखीं और नज़्में भी। वे हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं के शायर हैं ।
कैफ़ भोपाली अपने रंज को यूं कहते हैं –
बेवफ़ा ग़द्दार बेईमान किसने लिखा दिया
मेरे माथे पर ये पाकिस्तान किसने लिखा दिया
तकलीफ़ का चेहरा एक होता है।सियासी आबो-हवा इस पार या उस पार की,एक ही है। दोनों तरफ़ के शायरों ने दुख और अलामात को हिम्मत से आवाज़ दी ,चाहे फ़िराक़ गोरखपुरी हों,मख़्दूम मोहिउद्दीन,जोश हों, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हों,अहमद नदीम क़ासमी हों,शहरयार हों या निदा फ़ाज़ली हों ।शायरी के इस चेहरे में तरह-तरह से बेहतर इंसानी हालात के लिए ही लिखा-पढ़ा गया है। शहरयार की बात याद हो आती है-
दोस्त अहबाब की नज़रों में बुरा हो गया मैं
वक़्त की बात है, क्या होना था,क्या हो गया मैं
सरहद पार से परवीन शाकिर की शायरी में ,दिल को चीरती ये पीड़ा नमु होती है-
यकलख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल गयीं
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा
हमारे एक बेहद सच्चे शायर सुदीप बनर्जी ने अपने समकालीनों को संबोधित करते हुए कहा था –
“हम सब समकालीन हैं इन सबके।हमराह जरायम पेशे में या चश्मदीद गवाह। ख़ामोशी के गुनहगार।” हमारा पेशा लिखना है।हमें लिखने में गूंगा नहीं होना है।आने वाली नस्लों के लिए बहरे कानों में चिल्लाना है।
दोस्तो उर्दू कविता हमारी है।उसमें पुराने शराब और साक़ी के रंग अब नहीं हैं। हिंदी और उर्दू में मनोरंजन वाला रीतिकाल बीत गया ।ये आधुनिक दौर की शायरी है। इसमें समय के सीने में गहराती तल्ख़ इबारतें हैं जो इस तरह खुल कर सवाल की तरह आ खड़ी होती हैं ।कुमार पाशी की नज़्म का एक हिस्सा सुनिए
मेरी बेटी अपने बदन के लत्ते गुम कर बैठी है
नहीं जानवर नहीं,यह उसका भाई है
सदियों की तारीख़ पुरानी उसने भी दोहराई है
ये कविता ज़माने के सारे रंगों को शब्द दे रही है।कुछ जुदा रंग के शेर सुनाता हूं , जिनमें आपको आज की शायरी के कंसर्न मिलेंगे-
१
मख़्मूर सईदी- ‘सामने एक घड़ा पानी का।हाथ में एक सूखी रोटी है।गांव की शाम छप्परों के तले।
बिखरी-बिखरी है,टूटी -टूटी है ‘
नासिर काज़मी- ‘ रंजे सफ़र की कोई निशानी तो पास हो
थोड़ी सी ख़ाक -ए- कूचा-ए-दिलबर ही ले चलें ‘
ताज भोपाली -‘पीछे बंधे हैं हाथ मगर शर्त है सफ़र
किस से कहें के पांव के कांटे निकाल दे ।’
मुहम्मद अल्वी -‘इस शहर में कहीं पे हमारा मकां भी हो
बाज़ार है तो हम पे कभी मेहरबां भी हो
राजेश रेड्डी – ‘ मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
इन पंक्तियों में आपने देखा होगा कि हमारे वक़्त की शायरी जहां खड़ी है, वहां गंभीरता है।फूहड़ लतीफ़ेबाजी नहीं है।ये कविता न तो गलेबाजी में यक़ीन करती है न ही मंचों पर नैन-मटक्के से चालू मनोरंजन करती है।ये हमारे लिए एक ख़ूबसूरत दुनिया की मांग करती है।उसे बेहतर बनाने के फ़िक्र में बनी रहती है।
मैं जितना जान पाया ।उतना आपसे शेयर किया । जो समझ पाया उतना या वैसा ही कुछ है। वैसे भी मैं हिंदी का कवि,बस इतना जानने की फ़िक्र में रहता हूं कि दूसरी भाषाओं में जो लिखा गया है उसे जान सकूं ।
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लीलाधर मंडलोई
1953 (छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश)
प्रकाशन
कविता संग्रह – घर घर घूमा, रात बिरात, मगर एक आवाज़, काल बांका तिरछा, लिखे में दुक्ख, एक बहोत कोमल, तान, महज़ चेहरा नहीं पहन रखा था उसने, मनवा बेपरवाह, क्या बने बात.
संचयन-देखा अदेखा,कवि ने कहा, प्रतिनिधि कविताएं, हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में, मेरी प्रिय कविताएं.
आलोचना-कविता का तिर्यक
डायरी– दाना पानी, दिनन दिनन के फेर, राग सतपुड़ा, ईश्वर कहीं नहीं
यात्रा वृत्तांत-काला पानी
निबंध-अर्थ जल, कवि का गद्य
अनुवाद -अनातोली पारपरा(रूसी), शकेब जलाली (उर्दू) सहित कई विश्व कवियों के अनुवाद,
संकलन- अंदमान निकोबार की लोक कथाएं, बुंदेली लोक गीतों का संग्रह -बुंदेली लोकरागिनी
चित्रकला प्रदर्शनी
At Bharat Kala Bhawan,Banaras (BHU),Bharat Bhawan Bhopaland Expressio Jabalpur
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कृपया पहले वाक्य से “समकालीन उर्दू कविता” हटा दें।वह शीर्षक था।जो निराला वाले आरंभिक वाक्य से
जुड़ गया है।
आशा है करवा देंगे।