ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं

1

माँ की ढोलक

ढोलक जब बजती है
तो जरूर पहले
वादक के मन में बजती होगी.

किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है..जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप.

ऐसी थापों के लिए
माँ बखूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने.

उन दिनों रात में
ढ़ोलक -मंजीरों की आवाजसुनते सुनते ही
सोया करते थे लोग.
दरअसल तब लोग लय में जीते थे.
जीवन की ढ़ोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले.

अब यहाँ जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूँ
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढ़ोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता.

इधर माँ पैंसठ पार हो गई है
उसकी गर्दन में तकलीफ है
फिर भी पड़ौस में पहुँच ही जाती है
ढ़ोलक बजाने.

हम सुनते हैं मधुर गूँजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
माँ ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढ़ोलक.

2
नाम छिपाना

जितनी भी पूँजी है दुनिया में
इनकी लालसा है कि भरा जाए इनके बैगों में

ये वासना से भरे हैं संपत्ति पाने के लिए
अंधे हैं ये दीगर मसलों को देख पाने के लिए
जिनके हिस्से का ये कमा ले रहे हैं ये धन
वे भाग्य को कोस रहे हैं
ईमानदारी की किताबें पढ़ रहे हैं
कविताएं और आयतें पढ़ रहे हैं
वक्त गुजार रहे हैं
समझ नहीं ही नहीं पाते अपने शोषक को
उधर ये हस्ताक्षर करके
बड़ा विनिमय कर लेते हैं मुनाफ़े का

हमारी मेहनतें,हमारी जरूरतें
इच्छाएं और सपने खरीद लेंगे ये लोग एक दिन
कोई नहीं इस्तीफा देगा इस चिंता में कि
हमारी पसंदों की चीजें
हमारे ही सामने बोली लगाकर कोई खरीद ले जाएगा
हम चयनकर्ता नहीं रह सकेंगे
धीरे धीरे हमारे हिस्से में बस समझौते आएंगे
फिर हमारी राजनीतिक तारीफें आएंगी

काले मंसूबों से
इन लोगों ने बहुत धन कमाया है
ये विश्व में अब्बल हैं
इनकी दुकानों की नाम पट्टियां
पूरा नक्शा ढंप रहीं हैं देश विदेश का

हम चाहते हैं यहां से वहां तक
एक रस्सी बांध कर
उन पर टांग कर अपने कपड़े
छिपा दें
इन काले नामों को
नाम छिपाना भी एक मार हो शायद
इन पूंजीपतियों के लिए

ब्रज श्रीवास्तव

3

एक भी दिन

धरती के बच्चों के लिए बड़ी मुसीबत है
जीवन को यहां इस तरह चलना पड़ रहा है
जैसे जंगल में हिरन
शेर की आहट लिए हुए

एक विलोम यहां
एक शिकारी की तरह घूम रहा है
हाथ में बंदूक और हृदय में
हिंसा लिए हुए,भूख लिए हुए

इतने साल हुए सभ्य हुए
आज़ाद हुए भी गुज़र गया अच्छा समय
अब भी मनुष्य ने मनुष्य को मार डालना
नहीं छोड़ पाया
इतने सक्रिय रहे नीति वचन और सूक्तियां
असफल हुए यातायात के नियम
सावधानियां चूक गईं
कि बस मनुष्य ही खोते रहे अपना जीवन
कभी वाहनों की टक्कर में
कभी घृणा के हत्यारे बनने में
और कभी बदले की भावना को अंजाम देने में

सूरज नहीं दे पा रहा धरती को
एक भी अच्छी ख़बरों से भरा दिन
इस अधूरे मनुष्य की नीयत के कारण।

4

बरगद

बरगद के तने को निहारेंगे
प्रेमी की आंख से
उसके एक पत्ते पर रखकर
गुड़ चने खाएंगें
बच्चों की तरह
उसके नीचे के समतल को कुरेदेंगे
पूछेगें मिट्टी के डीले से
हाल चाल
समझदारों की तरह

उसकी शाख पर जाकर बैठेंगे
और चिढ़ाएंगे
कोटर में बैठे उल्लू को
शरारती की तरह
बलबूटे को छीलकर खाएंगें
झांकेंगे नीचे और कौतुक दिखाएंगे
दोस्तों को

एक टहनी को तोड़कर
निकालेंगे एक गाढ़ा द्रव
उसे दूध कहकर
चखाएंगे मित्रों को
एक और टहनी को देखेंगे
वे ऊपर से चली आईं नीचे जमीन तक
उनकी लटों को देखकर
केवल चकित होंगें

चकित होते हुए
हम बरगद से प्यार करेंगें
उसे छोड़कर आएंगे
तो मुड़ मुड़कर देखेंगे.
पता नहीं क्या चाहता होगा बरगद
प्यार चाहता होगा या परवाह
भोजन चाहता होगा या हमारा साथ
पानी हमसे चाहेगा या बादलों से
छांव के बदले में वह
गांव से प्रशंसा पत्र चाहेगा
या उसके लिए उपवास

हम इस तरह जाएंगे
एक शीतल छांव में
बरगद के तने को
बांहों में भींच लेंगें
इस तरह हम हर वृक्ष को
बचाएंगे
कुल्हाड़ी से

5

नरेंद्र जैन उज्जैन से

दो नगरों के संबंधों के रक्त में
अभी तक उष्णता है
शिल्प और स्थापत्य के पत्थर
अभी तक पिघल रहे हैं
व्यापार के मार्ग मौर्य काल की तरह
रौनक भरे भले न हों
संवेदनाओं के मार्ग में
अभी भी रोशनी दमक रही है

नदियाँ आपस में बातें करती हैं
दो स्त्रियों की तरह
गये दिन जब भरी होतीं थीं
नीले और गहरे पानी से
ये दो शहरों की जीवन धाराएं हैं

अभी तक आ रहे हैं मेघा
कालिदास के अभिज्ञान
शाकुन्तल के श्लोक से
कुछ बातें समय के पार होतीं हैं
जैसे हवाएं
जैसे कविताएं

कवि भी उज्जैन से
चले आते हैं विदिशा

जैसे नरेंद्र जैन
चले आते हैं हवा के झौंकों की तरह
उज्जैन से विदिशा आना
उनके लिए
दोनों शहरों के बीच की दूरी को
दूरी न होना साबित करना है

नरेंद्र जैन
विदिशा की धरती को चूमने
चले आते हैं अक्सर
लोगों से कम
यहां के स्थानों से मिलकर
चले जाते हैं वापस उज्जैन

6

पौधे के लिए

एक पौध जन्म लेती है
तो बताशे नहीं बंटते
मुंह मीठा नहीं कराते लोग

उनके माता-पिता कहीं दूर
वायु को साफ कर रहे होते हैं
छांव दे रहे होते हैं।

कोई संस्कार नहीं होता एक
पौधे के लिए
जब वह अपने काम पर लग रहा होता है
गड़ रहा होता है मिट्टी में।
जबकि उसके बारे में तय है
कि वह धरती पर अपने
हिस्से के काम ‌को
पूरा करेगा ही।

7

एम्बुलेंस

हट जा नाउम्मीदी रास्ते से हट जा,
मौत को मार डालने के लिये
घायल हुई जिंदगी जा रही है.

उसके पास वक्त की कमी है
तेज तेज जाना पड़ रहा है उसे
किसी के हिस्से का वक्त बचाने के लिये.

भूल जाओ अभी कुछ सोचना ,कुछ बोलना
सुनो ये सायरन की आवाज़
और बस दुआ करो

एक जरूरी
बहुत ज़रुरी आशाघोष करती हुई
एम्बुलेंस जा रही है.

8

मैं ही वंचित रहा

जब बाढ़ आई नदियों में
मैंने बादल और पानी को दी
कारण बताओ की चिट्ठी

जब भूकंप आया तो
मैंने डाँट दिया धरती को
जब झुलसे लोग गर्मी में तो
मैं झल्लाया सूरज पर

इनमें से किसी ने नहीं की कोई प्रतिक्रिया
करते रहे अपना काम बेखौफ़ सब

मैं ही वंचित रहा प्रकृति के खेल देखने से
स्वप्न में मिली नियंता की नौकरी को
गँवा दिया मैंने यूँ ही

9

करने के लिए

करने के लिए अभी बहुत कुछ बचा है
होने के लिए भी,
पक्षी को घोंसले में रखना है कुछ और तिनके वृक्षों को देना है कई उपहार हवा के लिए

सूरज को आराम के अलावा सब कुछ करना है चंद्रमा को बने रहना है
अंधकार के बीच की सबसे सुंदर और दीप्त चीज़

धरती को अपने परिक्रमण के दौरान देखना है उसके त्याग और मेहनत के बदले में कोई देना तो नहीं चाहता कोई कीमत
समुद्र को करना है कुछ उपाय
कि नदियों का उसके घर में भी रहे वज़ूद

एक एक करके सबके भीतर बैठना है उम्मीद को खुशियों को सबके लिए हर वक्त होना है सुलभ

रास्तों को पहनना है और मजबूत कपड़े
इतिहास को रहना है तटस्थ
दुनिया को बदलना है अपने कमरों का सामान

अच्छी चीज़ों को बढ़ाना है अपनी बिरादरी
हर आवाज़ को बनना है सुरीली

दिनों दिन बढ़ाना है मुझे अपनापा
संसार की आँखों से
जो चमक रही है हर एक शब्द में

———

ब्रज श्रीवास्तव

विदिशा में 5 सितंबर 1966 को जन्म।

समकालीन हिंदी कविता का चर्चित नाम।
तमाम गुमी हुई चीज़ें,घर के भीतर घर,ऐसे दिन का इंतज़ार ,आशाघोष, समय ही ऐसा है, हम गवाह हैं सहित,अब तक छः कविता संग्रह प्रकाशित।एक कविता संग्रह ‘कहानी रे तुमे’ उड़िया में भी प्रकाशित।अनुवाद और समीक्षा सहित कथेतर गद्य में अन्य प्रकाशन।माँ पर केंद्रित कविताओं का संचयन‘धरती होती है मांँ’,पिता पर केंद्रित कविताओं का संचयन ‘पिता के साये में जीवन’एवं त्रिपथ सीरीज के अब तक तीन संग्रहों का संपादन। साहित्य की बात समूह का संचालन। कुछ काम कैलीग्राफी और चित्रकला में भी। संगीत में दिलचस्पी।
विदिशा में शासकीय हाईस्कूल में प्राचार्य की पद पर कार्यरत।
फोन -7024134312
वाट्स एप -9425034312
ईमेल -brajshrivastava7@gmail.com


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