वसु गंधर्व की कविताएं
छाया
मृत्यु से पहले दादाजी, अपने पूर्ववर्ती दिनों की छाया थे
हम सब ऐसा कहा करते थे
वे दिनों को भूल रहे थे, और अपने नाम को, और अपने जीवन की तमाम कथाओं को।
इसका भाषाई मंतव्य शायद ऐसा है, कि उनका एक जीवन था विस्तृत, जिसमें उपाख्यान थे, रंग और तृष्णाएँ थीं, लालसाएँ, उदासियाँ, धूप-छाँह थी, और इन सबसे विलग, अंत के इन अंधेरे दिनों में एक छाया थी बस। देह भी नहीं, स्पर्श भी नहीं, स्मृति भी नहीं। बस पुरानी रौशनियों की छोड़ी एक अर्थहीन आकृति।
जब हम उनके करीब सट कर, उनकी निष्प्राण हो रही आँखों में घूरते थे, तो लगता था हम गिर जाएँगे।
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वर्षा
घर से निकलते ही जब वर्षा होने लगती है
तो संशय होने लगता है कि हमारे लौट आने के वक़्त तक
डूब गया होगा शायद घर बार
डूब गए होंगे माँ बाप, पेड़, घोंसले, अंधेरा, और उदासी
घर के बच्चे, और सबकुछ
इससे पहले कि हमारे थके कदम गूँज उठें उनके सीने में, डूब गए होंगे यात्राओं के गंतव्य
और स्थिरताओं के अंतराल
इतनी ही है मनुष्य की नियति की सीमा, कि वह बना रहे एक पेड़ जीवन की बरसातों के, आंधियों के बीच
तेज़ हवा से घिरा, देखता रहे आँख से ओझल होते दृश्य, और डूबता हुआ आस पास, दुनिया संसार
उसके उदास पत्रों पर गिरती रहे बारिश।
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संदर्भहीन प्रश्न
वह उदास आदमी क्या सोच रहा है
वह थका व्यक्ति क्यूँ इतना थका है
पत्थरों का कितना वजन उठाया है उसके कंधों ने
वह औरत सचमुच रास्ता भूल गयी है, या उसके भटकने में छिपा है कोई अर्थ
वृंत से गिरता पत्र विदा के कौन से सुर में गा रहा है अपना गीत
किस पतझर का ओज उसकी शिराओं में हो रहा है पैबस्त धीरे से
वह पृथ्वी क्यूँ घूमे जा रही है
अपनी तमाम निरुद्देश्यताएँ, निरार्थकताएँ लिए बदस्तूर
अगर एक भी चिड़िया के उड़ने में अर्थ छिपा है
अगर एक भी साँस निरुद्देश्य नहीं यहाँ
तो खुले क्यूँ घूम रहे हैं हत्यारे।
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इस तरह
चिकित्सक की तन्मयता से नहीं
कसाई की निर्ममता से जानो मेरी देह को
देखो, कि अंधेरे में कैसे मैं रेशा रेशा उधड़ते जाता हूँ
कहाँ से खुलता है मेरा सत्व
कहाँ से रिसता है ख़ून, कहाँ चुप्पी बसी है
कहाँ उदासी, और कोई पुराना गीत,
किन खोहों में निर्विकल्प शोर और अंधेरा
इस तरह से खोलो इन दुःस्वप्नों को
कि उधड़ कर खुलते हुए टूट जाए बहुत सा कुछ
बिखर जाए, खो जाए हमेशा के लिए
प्रार्थना की सदयशता से नहीं
गाली की निरंकुशता से पुकारो मेरा नाम।
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भूलो
बहुत ज़्यादा याद करना, आकस्मिकताओं को भी याद करना है
जिनकी नियत विस्मृति से ही बनते हैं कथाओं के ढाँचे
बहुत ज़्यादा याद करना, उस अंधेरे को भी याद करना है, जो बीच में कभी फ़िसल गया था बाहर की ओर
और उस खुरदुरेपन को जिसने हमें सिखाया पीड़ा का दंश, और ख़ुद हो गया समतल
इस पीड़ा की स्मृति में, बहुत ज़्यादा याद करने पर हमें याद आ सकती है हमारे जन्म की पीड़ा,
और उससे भी पुरानी, विकल अपनी मिट्टी कोड़ कर हमारे उगने की पीड़ा
जिसे भूलते हुए ही हमने गढ़े मनुष्यता के अपने आनुष्ठानिक सत्य
बहुत याद करना उन निरर्थक्ताओं को भी याद करना है, जिनका भूलना ही आकार दे सकता है याद के किसी भी भरोसेमंद शिल्प को
मन, अब त्यागो
भूलो।
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गति
बहुत धीरे समाप्त होता है उत्सव
बहुत धीरे विलुप्त होती हैं उसकी अंतिम ध्वनियाँ
प्रकाश अपने उद्गम के कोटरों में बहुत धीरे लौटता है
दिन भर की थकी पृथ्वी पुकारती है
अंधकार को वापस अपने पास
अंतिम अलविदा का अनुगूँज हो सके ख़त्म
इसके पहले मैं लौट आऊँ घर
बुझी न हो दरवाज़े के पास जलती बत्ती
ख़त्म न हुआ हो मेरे हिस्से का भात।
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हवाएँ
हवाएँ काँच के टुकड़ों की तरह घुस रही हैं देह के भीतर
हवाएँ पिघले हुए अंधकार की तरह घुस रही हैं देह के भीतर
हवाएँ उम्रक़ैद का फ़रमान पाए क़ैदी की तरह
घुस रही हैं देह के भीतर
स्मृतिहीन, हज़ारवीं बार भी हवाएँ
पहली बार की तरह लौट रही हैं देह में
प्रेम की तरह
भटके हुए दिन उन्हें पुकार रहे हैं
इतनी बड़ी पृथ्वी उनसे पूछ रही है रंगों के नाम, वृक्षों के गोपन स्पर्श में छिपा अर्थ
समेटे अपने भीतर ध्वनियाँ, और क्रंदन, और स्मृतियाँ
बटोर कर अस्तित्वहीन फूलों की गंध
दुहराते हुए धूप के सिराये चुम्बन
हवाएँ, हवाओं की तरह घुस रही हैं देह के भीतर।
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प्रेम
मैंने कहा अलविदा की अपनी भाषा में तुमसे प्रेम
तुमने आवेगों के तीव्रतम सिरों पर उसे सुना
एक ही समय
अपरिचय को परिचय में बदलता एक नगण्य-सा शब्द
प्रकृति के जिस अनगढ़ मौन से नदियाँ सीखती हैं अपने मीठे गीत
अकेलेपन की वे निस्तेज ध्वनियाँ
जो सूर्य के ताप से दूर
चंद्रमा का अंधकारमय मुख बुदबुदाता है
भूलने की अपनी भाषा में मैंने कहा प्रतीक्षा
तुमने उसमें क्रूरताओं की अलक्षित गहराइयों को सुना
मल्लाहों के हृदय की क्षीण धड़कनों में दबे
डूबने के उनके भय को सुना
अलविदा की अपनी भाषा में मैंने फिर से कहा प्रेम
जब तक उन्माद ढल गया विक्षिप्तता में
जब तक विक्षिप्तता हुई नक्षत्रों का ज्वार
दुहराने की अपनी भाषा में मैं कहता रहा प्रेम।
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विस्मरण
मुझे याद नहीं अपना पहला दृश्य
शायद वह अस्पताल के कमरे की स्लेटी छत का रंग होगा
या लेडी डॉक्टर की बड़ी घूरती आँख
या माँ की देह की अकुलाई सँवलाहट
रुलाई आने से ठीक पहले
जो दृश्य दर्ज हुआ होगा स्मृति में
वह खो चुका है
मुझे कहाँ याद दूध की पहली बूँद का आस्वाद
हवा का पहला संस्पर्श
रोटी का पहला टुकड़ा
खीर का एक दाना
माथा चूमते अनगिनत लोग
गाल सहलाते अनगिनत स्पर्श
पानी की पहली छुअन
प्रेम का वह उत्सव
जिससे उसके ठीक बाद छिटक गया मैं
थोड़ी ही दूर
अधकटे वृक्ष-सा डोलता हूँ पृथ्वी पर
महसूसता हूँ घास के पोरों से
माँ की प्रसव वेदना की आँच
खोजता हूँ
क़द में अलविदा के ठीक बराबर
अपना कोई शब्द।
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चुंबन
किस चुंबन के अतिरेक से विस्थापित हुआ पुष्प
आकाश में जाकर सूर्य हुआ
किस एकाकी चुंबन के विवरणों से उतरी धूल
बन गई दिशाएँ
किस चुंबन के रस्ते पहुँचा हम तक एकांत
एड़ियों में भरता ठण्डापन
दीवार की गर्द में उकेरता अपनी शक्ल
किस चुंबन ने हमारे साथ की भीतरी तहों में
रोप दिया एक अंधे वृक्ष का बीज
जिसके दिशाहीन फैलाव से
खो गईं परस्पर देहों की नैसर्गिक सीमाएँ
तुम्हारे पुष्प की गंध हुई मेरे जड़ों की
जिनका अंधकार फिर हो गया तुम्हारे पत्रों का
किस चुंबन ने हमें कीलों जैसे ठोंका अपने निर्दिष्ट साँचों में
कि वर्षा में भींगते
अपनी जंग खायी आकृति में डूबते, ख़त्म होते
हम देख ही नहीं पाए कि किस ओर थी मुक्ति
किस चुंबन ने दी हमें अनंत संभावनाओं की एक रात
और बिना संभावनाओं की अनंत रातें।
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वसु गंधर्व
उम्र- 23 वर्ष
‘रचना समय’ भोपाल से चालीस कविताओं की एक पुस्तिका, ‘किसी रात की लिखित उदासी में’ प्रकाशित
पत्र-पत्रिकाओं और वेब ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित
शास्त्रीय संगीत के गंभीर छात्र, अनेक घरानों में तालीम
कविता के अलावा विश्व साहित्य, दर्शन, और अर्थशास्त्र में रुचि
अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में स्नातक
वर्तमान में EFLU हैदराबद में अध्ययनरत
फ़ोन- 9826853592
ईमेल- vasugandharv111@gmail.com
पता-
Vasu Gandharv
HIG 1-16, Sector 29
Near Vinayak G Mart
New Raipur, Chhattisgarh-
492101
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