बाबू जी की छतरी 

-अवधेश प्रीत 

छतरी मामूली मरम्मत से ठीक हो सकती थी और एहतियात के साथ इस्तेमाल करने पर कई सीजन आराम से निकाल सकती थी, यही सोचकर वह छतरी लेकर घर से चला था और मन ही मन तय कर चुका था कि पंद्रह-बीस रुपए भी खर्च करने पड़े तो कर देगा। हालांकि उसे विश्वास था कि छतरी बरसात से पहले बनवाने पर खर्च और कम आता, लेकिन एकमुश्त पैसे हाथ में न हो पाने से मामला टलता गया था और अब, जबकि बरसात ऐन सिर पर सवार थी, जो हो, छतरी बनवा लेना अनिवार्य हो गया था।

छतरी कब और कैसे खराब हुई, यह ठीक-ठीक किसी को पता नही, लेकिन छतरी खराब हो गई, यह जानकारी सबसे पहले मां को हुई। मां ने छतरी खराब हो जाने के लिए सबको कोसा और अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘‘बाप ने कितनी मुश्किल से एक-एक पैसा जोड़कर छतरी खरीदी थी। समय-कुसमय कितना काम देती थी यह। अब देखती हूं कैसे काम चलता है। जब चेताती थी तो सबको बुरा लगता था। अपनी कमाई से खरीदो तो पता चले।’’

छतरी चूंकि मां अपने पास रखती थी और जरूरत पड़ने पर वही निकालकर देती थी, इसलिए छतरी देते वक्त चेतना कभी नहीं भूलती थी, ‘‘ठीक से रखना। कहीं खराब न हो।’’

लेकिन मां की तमाम चेतावनी और सावधनी के बावजूद छतरी खराब हो गई थी। मां को लगा था, उसके लाख चेताने के बावजूद, लापरवाही बरती गई, इसीलिए छतरी खराब हो गई। उस दिन वह दुःख और क्षोभ से भरी घंटो बड़बड़ाती रही थी। बाबूजी को याद कर कलपती रही थी और बहुत समझाने-बुझाने पर भी उसने उस दिन खाना खाने से इनकार कर दिया था। उस दिन पूरे घर में तनातनी बनी रही थी।

छतरी खराब हो जाने का दुःख उसे भी था। लेकिन मरम्मत करा लेने से छतरी फिर काम लायक हो जाएगी, यह सोचकर उसने संतोष कर लिया था। हालांकि मरम्मत पर आनेवाले खर्च की सोचकर उसका दिल बैठने भी लगा था, लेकिन जोड़-जुगाड़कर छतरी बनवा लेने के प्रति वह इसलिए भी आश्वस्त था कि बरसात आने में अभी काफी समय था और इस बीच वह कुछ-न-कुछ तो हिसाब बैठा ही लेगा। और कुछ नहीं तो उधार लेकर ही सही, छतरी तो बनवा ही लेगा।

उस दिन उसे पहली बार लगा था कि छतरी खरीदना कितना मुश्किल काम है। यह मुश्किल काम बाबूजी ने कैसे किया होगा,  तब सोच-सोचकर उसका मन ऊब-चुभ होने लगा था और आंखों के आगे बाबूजी का चेहरा नाचने लगा था। मां के दुःख और नारजगी का अर्थ उसकी समझ में आने लगा था। मां के लिए छतरी, सिर्फ एक छतरी भर नहींे थी, जो समय-कुसमय काम आती थी, बल्कि वह मुश्किल काम कर दिखाने के जीवट और जीत की प्रतीक भी थी। छतरी बाबू जी की स्मृति चिन्ह ही नहीं, पारिवारिक प्रतिष्ठा का बोध भी थी।

मां की स्मृति में छतरी से जुड़े कई-कई किस्से हैं। वह अक्सर और प्रसंग के मुताबिक उन किस्सों को रस ले-लेकर सुनाती रही है। छतरी घर में कैसे आई, यह किस्सा तो मां ने इतनी बार सुनाया था कि उसे वह किस्सा हू-ब-हू याद  हो गया है। उसे सचमच आश्चर्य होता है कि घोर गरीबी और अभावों के बीच बाबूजी ने छतरी खरीदने की हिम्मत कैसे की? मां कहती है, ‘तेरे बाबा, बरसात में भींग गए थे। उन्हें निमोनिया हो गया था। वही निमोनिया उनका काल बन गया। तभी से तेरे बाबूजी ने ठान लिया था, चाहे जो हो छतरी जरूर खरीदेंगे। फिर एक-एक पैसा जोड़कर आखिर उन्होंने छतरी खरीद ही ली। उस जमाने में पूरे बाईस रुपये लग गए थे।

बाईस रुपये तो उसे आज भी पहाड़ लगते हैं, उस जमाने में तो वे जरूर बाईस सौ के बराबर रहे होंगे। शुरू-शुरू में वह मां को इस अविश्वास से देखता जैसे मां कोई गप्प हांक रही हो, लेकिन तब मां जोर देकर कहती, ‘‘आंख फाड़कर क्या देख रहे हो? उन बाईस रुपयों के लिए हमलोग कितने दिन तो आधा पेट खाकर रहे। कितने घरों की बेगारी की। कितना तो मन मारा।’’

यह सब बताते हुए मां जैसे बाबूजी की स्मृति में डूबकर और भी भावुक हो जाती। डबडबाई आंखों को पोंछते हुए कहती, ‘‘उनकी जिद और कंजूसी देखकर कभी-कभी मुझे गुस्सा भी आता। मैं उनसे झगड़ पड़ती। लेकिन वह मरदवा तो बस एक ही था। मेरी बात इस कान से सुनता, उस कान से निकाल देता। मैं भी क्या करती। बस, मन मसोसकर रह जाती।’’

अपनी बात खत्म करते-करते मां खिलखिलाकर हंसती और वह देखता कि मां की हंसी में अपनी हंसी उड़ाने का भाव है। वह मां से आंखें चुराने लगता मानो बाबूजी के जीवट और जीत की मिसाल देती वह, कहीं यह न पूछ बैठें ,’ है इतनी हिम्मत तुममें?’

सचमुच छतरी खरीद कर बाबूजी ने हिम्मत का ही काम किया था, इस बात की तस्दीक बहुत बाद में हुई थी। यह किस्सा मां ने नहीं, मंगरू काका ने सुनाया था। वह एक दिन अचानक गांजे की झोंक में आ गए थे और बाबूजी की हिम्मत का असली किस्सा सुना गए थे,, ‘‘एक दिन की बात है कि तेरे बाबूजी और तेरे बाबा दोनों गजाधर बाबू के खेत में रोपनी कर रहे थे। तभी बरसात शुरु हो गई । तभी अचानक क्या हुआ कि तेरे बाबा की देह में थरथरी होने लगी, उनकी यह हालत देखकर तेरे बाबूजी उन्हें सहारा देकर खेत की मेड़ पर ले आए और वहीं छतरी तानकर बैठे गजाधर बाबू के पास बैठा दिया। गजाधर बाबू को हेठी लगी या हिमाकत यह तो वही जानें। लेकिन वह एकदम अगिया-बैताल हो गए। बोलने लगे, ससुर कामचोर। दो बूंद पानी क्या पड़ा, लगे गलने। तेरे बाबा कुड़ते-कांपते वहीं बैठे भीगते रहे। उस दिन घर पहुंचते-पहुंचते उनकी देह आंवें की तरह जलने लगी थी. फिर तो जो खटिया पकड़ी, कि उठने का नाम नहीं लिया। निमोनिया उनकी जान लेकर ही गया।’’

मां ने यह किस्सा कभी नहीं सुनाया। पता नहीं क्यों, इस किस्से को सुनाने से बचती रही। वह कभी इस किस्से को कुरेदना भी चाहता तो मां बड़ी सफाई से टाल जाती और छतरी से जुड़ा कोई दूसरा किस्सा छेड़ बैठती। मां अक्सर वह किस्सा बड़े चाव से सुनाती कि किस तरह छतरी के आते ही आस-पड़ोस ही क्या पूरे गांव में जैसे हंगामा मच गया था। वह उन क्षणों को पकड़ते हुए इस रोमांच से भरी हुई होती,  मानो जिंदगी की सबसे अनमोल खुशी का स्वाद अभी तक जीभ पर ताजा हो। वह चटखारे ले-लेकर बताती,‘‘तेरे बाबूजी जिस दिन छतरी खरीदकर लाए,  टोला- मुहल्ला हर जगह हल्ला हो गया। छतरी देखने के लिए लोगों की भीड़ लग गई। कोई छतरी को छूकर देखता तो कोई खोलकर। सभी छतरी की तारीफ करते। छतरी थी भी तारीफ के काबिल। छतरी का काला कपड़ा तब खुब चमकता था। बंकुड़ी (लकड़ी की हैंडिल) तो इतनी चिकनी थी कि हाथ फिसलता था। छतरी तानने पर आधी कोठरी घेर लेती थी। लोग कहते ऐसी छतरी तो गजधर बाबू के पास भी नहीं है। उस दिन तुम्हारे बाबूजी का कलेजा जुड़ा गया था। माथा गर्व से ऊंचा हो गया था।’’

उसने गौर किया था कि छतरी के किस्से में कहीं-न-कहीं गजाधर बाबू भी शामिल हैं। उसे समझते देर नहीं लगी थी कि बाबूजी ने छतरी धूप-बरसात से बचने-बचाने के लिए नहीं, गजाधर बाबू के मान-मर्दन के लिए खरीदी थी। इस बात की पुष्टि मंगल काका ने भी की थी। गांजे की झोक में वह बोल गए थे, ‘‘तेरा बाप छतरी क्या खरीदा, गजाधर बाबू का पानी ही उतार दिया। उनकी पुरानी, बदरंग छतरी तेरे बाप की छतरी के आगे खौराहा कुत्ता माफिक लगती। गजाधर बाबू जब छतरी तानकर चलते तो लोग पीठ पीछे हंसी उड़ाते और तेरे बाबूजी की छतरी की तारीफ करते नहीं अघाते। धीरे – धीरे हुआ यह कि गजाधर बाबू अपनी छतरी खुलेआम निकालने से सकुचाने लगे।’’

मां बताती, ‘‘तेरे बाबूजी छतरी को खूब संभालकर रखते। बहुत जरूरी होता तभी निकालते। मैं कभी मजाक करती कि छतरी क्या समधिन को दिखाने के लिए लाए हैं, तब वह हंसकर कहते ,” छतरी शौक से नहीं, मजबूरी में खरीदे हैं।’’

बाबूजी की मजबूरी का खुलासा मां ने कभी नहीं किया, पर बात-बात में उसने एक दिन पते की बात जरूर कह दी। वह छतरी का न खत्म होनेवाला किस्सा सुनाते-सुनाते अपनी ही रौ में बह गई थी शायद, तभी तो उसने कहा था, ‘‘गजाधर बाबू के बेटे सिंगेसर का बिआह हुआ था। कक्कन छुड़ानेवाले दिन सवेरे से ही पानी पड़ने लगा था। अब नई बहुरिया और दुल्हा भींगते हुए पूजा के लिए घर से निकलें यह तो होता नहीं। बस, गजाध्र बाबू दौड़ते हुउ आए और तेरे बाबूजी से छतरी मांग ले गए। तेरे बाबूजी ने खुशी-खुशी उन्हें छतरी दे दी तो मैं चकरा गई। जब पूछा कि छतरी गजाधर बाबू को काहे दे दिए तो वह बोले,  हम छतरी नहीं दिए, अपना धर्म निबाहे हैं। छतरी होती ही है आड़े बखत काम आने के लिए।’

सचमुच  छतरी आड़े बखत में बहुत काम आती थी। उसे आज भी याद है, जब बाबूजी के साथ वह, छोटका और मां, मनिया-मेला घूमने गए थे, तब छतरी कितनी काम आई थी। मेले से लौटते हुए, अभी वे रास्ते में ही थे कि खूब तेज आंधी उठी थी और देखते-ही-देखते मुसलाधर पानी पड़ने लगा था। रास्ते में न पेड़ थे, न कोई मकान। वे निचाट सिवान…तब छतरी ही काम आई थी। बाबूजी ने कंधे पर टंगी छतरी तानकर सबको उसी में समेट लिया था। वह और छोटका बीच में, मां-बाबूजी किनारे-किनारे। बाबूजी छतरी की बंकुड़ी थामे मां को  भीगने से बचाते तो स्वयं भीगने लग जाते। खुद को बचाते तो मां भीगने लग जाती। यह देखकर मां ने टोका था, ‘‘अपने को बचाइए न! भीग जाइएगा तो झुट्ठे तबीयत खराब हो जाएगी।’’

‘‘और तुम भीग जाओगी तब?’’ बाबूजी ने मां की आंखों में झांककर पूछा था.

‘‘हम भीग जाएंगे तो क्या! हमको थोड़े न कुछ होगा!’’ मां बाबूजी की आंख बचाते हुए बोली थी ।

‘‘क्यों? तुमको क्यों नहीं कुछ होगा?’’ बाबूजी के स्वर में मिठास भरी थी। अनायास ही उन्होंने छतरी की बंकुड़ी कसकर थाम ली थी।

‘‘सच कहती हो तुम!’’ बाबूजी का हाथ बंकुड़ी पर सरककर मां के हाथ से जा सटा था, ‘‘छतरी नहीं थी तब भी बारिश थी। छतरी है तब भी बारिश है। लेकिन दोनों में कितना फर्क है?’’

मां चुहल कर बैठी थी,‘‘क्या फर्क है?’’

‘‘यही कि तब एक डर था अब एक हौसला है।’’ बाबूजी खो-से गए थे जैसे स्वयं से ही बोल रहे हों।

बाबूजी की वह बात सही साबित हुई थी। छतरी थी तो हौसला भी था। बाबूजी नहीं रहे, लेकिन छतरी है। छतरी मां, अपने पास रखती है जैसे वह उसके जीने का हौसला बढ़ाती हो। छतरी वह किसी को तभी देती है,जब देना बहुत ही जरूरी हो। छोटकू को तो छतरी देने में वह हमेशा ही आनाकानी करती रही । उसका मानना था कि छोटकू छतरी के साथ लापरवाही ही नहीं बरतता है, दुरुपयोग भी करता है। मां उसे कई बार तो झिड़क देती, ‘‘घाम-बरखा सहने आदत डालो।’’

मो की झिड़की का छोटकू पर असर नहीं पड़ता। वह पहले जिद करके छतरी ले लेता  फिर ढिठाई पर उतर आया, ‘‘छतरी रख के क्या आचार पड़ेगा?’’

ऐसे में मां का चेहरा रुआंसा हो जाता। वह छोटकू को छतरी देकर और ज्यादा उदास हो जाता. तब वह मां को समझाता ‘‘अभी लड़कपन है। धीरे – धीरे समझ जाएगा।” लेकिन छोटकू नहीं समझा। मां का मर्म और छतरी का धर्म वह कभी नहीं समझ पाया। शादी के तुरंत बाद लोटा-थाली, घर-आंगन सब बांट लिया। जब छतरी की बारी आई, मां बिफर पड़ी, ‘‘मेरे जीते जी छतरी किसी को नहीं मिलेगी।’’

उस वक्त छोटकू का रूप देखने लायक था। हाथ-पैर भांजते हुए उसने मां को लताड़ा था, बाबूजी को कोसा था और उसे बीवी-बच्चों समेत इतना गलियाया था, कि पूरे गांव में अच्छा-खासा तमाशा हो गया था। छोटे भाई की इस करतूत पर वह कई दिनों तक मुंह छुपाए फिरता रहा था। मां चुपचाप सुबकती रही थी।

मां उस दिन भी खूब रोई थी, जब छोटकू पंजाब कमाने जाने लगा था। मां का गला भर आया था। छोटकू का हाथ पकड़कर बड़ी मुश्किल से बोल पाई थी, ‘‘छतरी साथ रख लो। परदेश में काम आएगी।’’

छोटकू छतरी का नाम सुनते ही छटक गया था। मां का हाथ झटकते हुए गरज पड़ा था, ‘‘रख, रख, अपनी छतरी अपने पास। हम खुद अपनी कमाई से अपने लिए छतरी खरीद लेंगे।’’

छतरी तो छोटकू ने खरीद ही ली थी, लेकिन थी किस काम की? देखने में चुनमुनिया। छुओ तो मैली हो जाने का डर। बित्ते भर की। क्या तो खुद ढाको, क्या दूसरे को। बटन से खुलती थी, बंद होती थी बटन से। मानो जादू की डिबिया में कागज का गुलदस्ता।

पंजाब से पहली बार लौटा था छोटकू, तभी लेकर आया था वह जादुई छतरी। पास-पड़ोस के लोगों ने उस छतरी को कौतूहल से देखा था, लेकिन उसकी तुलना किसी ने गजाधर बाबू की छतरी से नहीं की थी। उल्टे कई लोगों ने हंसी उड़ाई थी, ‘‘भइया रे, ऐसी छतरी कौन काम की, ऊपर से टीप-टाप, भीतर से मोकामा घाट।’’

कहते हैं, छोटकू का चेहरा अपमान से लाल हो गया था। उसने ताव दिखाते हुए लोगों को दुत्कारा था, ‘‘देहाती भुच्च, क्या जानो दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है।’’

उसने मां को बताई थी छोटकू वाली यह बात, तो मां का चेहरा लकीरों से भर गया था। वह कड़वाहट छुपा नहीं पाई थी, ‘‘पूछे कोई छोटकू से, दुनिया चाहे जहां पहुंच गई हो, वह आज भी मजूरा नहीं है क्या?’’

मां का प्रश्न सुनकर वह दंग रह गया था। इतना कुछ कैसे जानती है मां। मां अगमजानी है क्या?

मां अगमजानी न होती तो कैसे बहुत पहले भविष्यवाणी कर देती, ‘‘छोटकू का लक्षण ठीक नहीं लगता। वह खाली अपना सुख देखता है। वह जिंदगी भर हिरन की तरह पानी के पीछे भागता रह जाएगा।’’

उस वक्त लगा था, दुखी मां अनजाने ही छोटकू को कोस रही है, लेकिन नहीं, जिस दिन यह खबर आई थी कि छोटकू की बीवी उसे छोड़कर भाग गई है, उस दिन उसे लगा था, मां से ज्यादा अपने पेट के जाए को कौन जानता है?  उस खबर से खूब जग हंसाई हुई थी। गांव-टोला कहीं सिर उठाकर चलने लायक नहीं रह गए थे वे। मां ने फटे मन से आड़े हाथ लिया था छोटकू को, ‘‘बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।’’

उस दिन उसकी आंखों न तो छोटकू, न ही उसकी बीवी की शक्ल उभरी थी, बल्कि उसकी आंखों में एक जादुई छतरी बड़ी देर तक तनी रही थी और फिर धुंधलका घिर आया था।

उस रात सोते-सोते अचानक वह चिहुंककर उठ बैठा था। पत्नी कुछ समझती तब तक वह कोठरी से बाहर निकलकर मां के पास जा पहुंचा था। मां के अगल-बगल उसके दोनों बच्चे मां से चिपटे सोए थे। मां शायद गहरी नींद में थी। वह उल्टे पांव लौटने लगा था कि मां की नींद टूट गई थी। मां ने अचकचाकर पूछा था, ‘‘बड़कू क्या बात है?’’

मां नींद में भी उसकी आहट पहचानती है क्या? इससे पहले कि वह कोई जवाब दे, मां उठ बैठी, फिर चितिंत स्वर में उसने वही प्रश्न दुहराया था , ‘‘बड़कू क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं मां?’’ उसने अनमने ढंग से उत्तर दिया था, ‘‘एक खराब सपना देखा, इसीलिए जी घबरा रहा था।’’

‘‘कैसा सपना था? क्या देखा सपने में?’’ भयातुर मां ने उसका हाथ खींचकर उसे अपने पास खटिया पर बैठा लिया था।

‘‘बहुत खराब सपना था मां। सपने में हमलोग मनिया मेला घूमने गए थे। वहां कोई मेला नहीं था। मुझे लगा कि गलत जगह आ गए हैं। लेकिन तुम्हारी बहू -पोतों ने जिद पकड़ ली, कि यही मनिया है और मेला भी यहीं-कहीं होगा। मेरे कानों में नौटंकी की आवाज, नगाड़े की थाप और ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ के बोल गूंजने लगे, मैं उस मेले को खोजने लगा। इतने में क्या देखता हूं कि बड़ी तेजआंधी -पानी एक साथ आई। मैंने तुम्हारी बहू और पोतों को पानी से बचाने के लिए बाबूजी की छतरी तान ली।लेकिन छतरी तानते ही वह हवा में फड़फड़ाने लगी। जब तक मैं समझता, पता नहीं कैसे बंकुड़ी मेरे हाथ से छूट गई और छतरी हवा में उड़ गई। मैं सबको छोड़कर छतरी के पीछे भागा, लेकिन छतरी हवा में उड़ते ही मेरे पकड़ के बाहर हो चुकी थी। मैं छतरी को पकड़ने के लिए दौड़ता रहा और मेरी पत्नी, बच्चे उस आंधी -पानी में घिरे मुझे चीख-चीख कर पुकारते रहे।’

मां को सपना सुनाते हुए वह जैसे उसी सपने में जा पहुंचा था। उसके चेहरे पर भय उभर आया था। माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई थीं । उसकी सांसें तेज-तेज चलने लगी थीं जैसे वह सपने से बाहर भी छतरी को पकड़ने की कोशिश कर रहा हो। मां ने उसका हाथ थामकर उसे दिलासा देने की कोशिश की। अपने आंचल से उसके माथे का पसीना पोंछते हुए समझाया था, ‘‘जो होना था, वो हो गया। अब जैसे भी हो, बाबूजी की छतरी बनवा लो। और हां, एक बात याद रखना, सपना कभी झूठा नहीं होता। उसका कोई-न-कोई अर्थ जरूर होता है?’’

बहुत सर खपाने पर भी उस वह सपने का अर्थ नहीं निकाल पाया था। मां से भी पूछा था तो वह टाल गई थी, ‘‘हम क्या बड़का विद्वान हैं?’’

तो सपना देखें हम और अर्थ निकालेंगे विद्वान? सपना हमारा, फलितार्थ किसी और का? यह पहेली भी नहीं बूझ पाया था वह। उसे बस इतनी ही बात समझ में आई थी कि बाबूजी की छतरी खराब हो गई है, और उसे हर हाल में बनवाना है। मां भी पीछे पड़ी हुई थी, ‘‘लगता है, छतरी इस जनम में नहीं बनेगी।”

अब वह मां को कैसे समझाता कि हाथ खाली रहने के कारण छतरी नहीं बनवा पा रहा है। दिहाड़ी-मजूरी के पैसे बचते ही कहां हैं? कब से तो सोच रहा है कि पैसे इकट्ठे हों तो शहर जाकर छतरी बनवा ले, लेकिन पैसे तो लाख कोशिश करो, बंद मुट्ठी से भी रेत की तरह फिसल जाते हैं। मां ठीक कहती है, अपनी कमाई से खरीदो तो पता चले!

अपनी कमाई से छतरी खरीदना तो दूर ,बाबूजी की छतरी बनवाना भी मुश्किल हो रहा था। वो तो भला हो सिंगेसर बाबू का, जो ऐन वक्त पर काम आ गए। उसकी परेशानी सुनकर झट पचास रुपये देते हुए बोले, ‘‘थोड़ा पोस्तदाना शहर पहुंचाना है। पहुंचा दो तो अढ़ाई सौ रुपया और दूंगा।’’

‘‘अढ़ाई सौ रुपया!’’ उसे अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ था। उसने सिंगेसर बाबू को आश्चर्य से निहारा था, कहीं मजाक तो नहीं कर रहे सिंगेसर बाबू!

नहीं, सिंगेसर बाबू एकदम गंभीर थे। उसके आश्चर्य को लक्ष्य करके उन्होंने समझाया था , ‘‘बड़ा काम करो तो बड़ा पैसा मिलता है। पोस्तादाना पहुंचाने का काम अब हर किसी को तो दे नहीं सकता? इस काम के लिए विश्वासी आदमी का होना जरूरी है।’

तत्काल तो कोई उत्तर ही नहीं सूझा था उसे, उल्टे मन में तरह-तरह के प्रश्न उठने लगे थे-कब से होने लगा वह सिंगेसर बाबू का विश्वाशी? कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं? कहीं लेने के देने पड़ गए तो?

उसे असमंजस में पड़ा देख सिंगेसर बाबू हंस पड़े थे,‘‘किस सोच-विचार में पड़ गए तुम? मन भरे तो करना, नहीं तो कोई जोर-जबरर्दस्ती थोड़े है?’’

वह जैसे एक बड़े धर्मसंकट से उबर गया था। राहत की सांस लेते हुए उसने सिंगेसर बाबू को प्रणाम किया था और उल्टे पांव घर लौट आया था । तब उसके दिमाग में सिर्फ छतरी बनवाने की धुन थी और वह चाहता था कि हाथ में आए पैसे खर्च हो जाएं, इससे पहले ही वह शहर जाकर छतरी बनवा ले।

यूं वह शहर बहुत कम ही जाता था। लेकिन जब भी जाता उसे शहर बदला हुआ दिखता। वह कई बार तो चकरा ही जाता कि पिछली बार जो जहां था, वह अब कहां है? चौक होगा कि नहीं? फुटपाथ मिलेगा कि नहीं? फुटपाथ पर छतरी बनानेवाले कारीगर होंगे कि नहीं? लेकिन संयोग से चौक भी था। फुटपाथ भी था। फुटपाथ पर छतरी बनानेवाले कारीगर भी थे। वह यह सब देखकर आश्वस्त हुआ और थोड़ी देर ठहरकर दूर से ही पूरे दृश्य को तजबीजता रहा। जैसे ही उसकी नजर खाली बैठे एक कारीगर पर पड़ी, वह तेजी से उसकी ओर लपका मानो जरा- सी भी देरी हुई तो वह कारीगर भी दूसरों की तरह व्यस्त हो जाएगा।

वह कारीगर के ठीक सामने जा खड़ा हुआ। कारीगर बूढ़ा था। अपने काम में पका हुआ लगता था। उसे देखकर कारीगर ने आंखें मिचमिचाते हुए पूछा, ‘‘क्या है?’’

‘‘छतरी बनवानी है।’’ उसे हंसी आते-आते रुकी।

‘‘क्या खराबी है?’’ बूढ़े कारीगर ने बेमन से सवाल दागा।

इस बार उसे हंसी नहीं, चिढ़ हो आई, ‘‘कारीगर आप हैं, बताएं हम?’’

पता नहीं क्या सोचकर बुढ़ऊ हंस पड़े। इससे पहले कि वह बुढ़ऊ की हंसी को पकड़ पाता, वह हंसी उनकी झुर्रियों में खो गई। बुढ़ऊ झुर्रियों भरा अपना हाथ बढ़ाकर उससे छतरी लेते हुए बोले, ‘‘बहुत पुरानी लगती है।’’

‘‘हां! बाबूजी के जमाने की है। वही खरीदे थे।’’ सहज हो आया था वह।

‘‘अब कहां मिलती है ऐसी छतरी।’’ बुढ़ऊ छतरी को फैलाकर दही की मथानी की तरह नचाने लगे, फिर उसे नचाना रोकर बोले, ‘‘तीन कमानी बेकार हो गई है।’’

उसने गौर से देखा कि फैली छतरी का ऊपरी सिरा, जो अभी पेंदी की तरह जमीन पर टिका था, वहां तार में गुंथी तीन कमानियां मुंह बाए हुए थीं। कमानियों के छेद खोड़ दांत की तरह तार में अटके भर थे। उसने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘ठीक कहते हैं।’’

‘‘और यह खजाना तो एकदम खत्तम है।’’ बुढ़ऊ ने अपने दाहिने हाथ के अंगूठे से थामे उस लोहे के खजाने को ऊपर नीचे खिसकाया, जिसमें कमानियों के दूसरे सिरे आपस में गुंथे हुए थे।

इस बार वह बुढ़ऊ से सहमत नहीं हुआ। तुरंत प्रतिवाद कर बैठा, ‘‘हमको तो खत्तम नहीं लगता।’’

‘‘अब नहीं लगता तो दूसरी बात है।’’ बुढ़ऊ जैसे ऊबकर दो टूक बोले, ‘‘लेकिन चलने वाला नहीं है।’’

उसे लगा कि बुढ़ऊ खब्ती है, ज्यादा टोक-टाक करने पर बात बिगड़ भी सकती है, तो उसने झट बात संभालने की गरज से खुली छतरी का खजाना जिस क्लिप पर टिकता था, वहां इशारा करते हुए बोला, ‘‘ये अंकुशी भी तो गायब है।’’

बुढ़ऊ के होंठों पर हंसी रेंग गई। यह हंसी उसकी चालाकी पर थी या उसके गंवारूपन पर, यह तो वह जान नहीं पाया, पर उसने बुढ़ऊ की हंसी का डटकर मुकाबला किया तो बुढ़ऊ झेंप गए। उसने महसूस किया कि जेब में पैसे हों तो आदमी कितना मजबूत हो जाता है, किसी की भी हंसी के सामने डट जाने की हद तक।

‘‘’क्या हुआ बाबा, चुप क्यों हो गए?’ बुढ़ऊ को चुप देख उसके मन में उत्सुकता जागी।

बुढ़ऊ की आंखें उसके चेहरे पर आ टिकीं। उसे लगा कि बुढ़ऊ की आंखों में ढेर सारी परछाइयां हैं और वह उसे ठीक-ठीेक नहीं पहचान पा रहे हैं। उसे थोड़ी घबराहट-सी हुई। उसने अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए सीधा सवाल किया, ‘‘बोलिए बाबा, कितना लगेगा?’’

बुढ़ऊ ने तुरंत उत्तर नहीं दिया। उसे लगा जैसे वह मन-ही-मन हिसाब लगा रहे हैं । वह उनके बोलने की प्रतीक्षा  करता रहा। बुढ़ऊ बोलने के पहले फिर हंसे। इस बार उनकी हंसी बिल्कुल फीकी थी, ‘‘बाबू, यह छतरी बनने वाली नहीं है।’’

‘‘क्या?’’ उसका मुंह खुला का खुला रह गया। आंखें फाड़कर बुढ़ऊ को देखता हुआ बोला, ‘‘बाबा, मुफ्त में नहीं, पैसा देकर छतरी बनवायेंगे।’’

‘‘बाबू, हम कब कह रहे हैं कि पैसा नहीं दोगे, लेकिन छतरी इतनी पुरानी है कि अब बननेवाली नहीं। ’’ बुढ़ऊ ने छतरी समेटकर उसकी ओर बढ़ा दी थी।

उसने छतरी को हाथ लगाए बगैर बुढ़ऊ को ललकारा मानो हल में जुते बूढ़े बैल को टिटकार रहा हो, ‘‘अब आप जैसा पुराना कारीगर इस छतरी को नहीं बनाएगा तो दूसरा कौन बनाएगा?’’

ृ बुढ़ऊ बाएं हाथ की हथेली आसमान की ओर उठाकर बुदबुदाए, ‘‘सब समय का फेर है। पुरानी छतरी, पुराना कारीगर सब इस बाजार में फालतू है।’’

बुढ़ऊ का फलसफा समझने के बजाय उसने ज्यादा जरूरी यह समझा कि बुढ़ऊ के पास समय गंवाने से अच्छा है कि दूसरी दुकान देखे। इस निर्णय के साथ ही उसने चुपचाप बुढ़ऊ के हाथ से छतरी खींच ली। बुढ़ऊ ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा जैसे पहली बार उसे भर निगाह देख रहे हों। उसे लगा कि बुढ़ऊ उसका चेहरा ही नहीं, मन भी पढ़ रहे हैं। सचमुच बुढ़ऊ के होंठ हिलने लगे थे। अचानक वह जोर-जोर से बोलने लगे, ‘‘बाजार में किसिम-किसिम की छतरी आ गई है। एक से एक चुनमुन। एक से एक ललमुन। सब उसी की ओर भाग रहे हैं। अब कौन पूछता है, इस बंकुड़ीवाली छतरी को। अब तो न इसकी कमानी मिलती है, न खजाना। भगवान जाने, ये कमानी, खजाना बनानेवाले सब कहां बह-बिला गए?’’

बुढ़ऊ का आहत स्वर उसे भीतर तक हिला गया। एक झटके में खत्म हो गई थी बाबूजी की छतरी। वह ठगाा-सा कभी बुढ़ऊ को देख रहा था, तो कभी बाजार को। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह बाबूजी की छतरी का क्या करे?

सहसा, उसे लगा कि सारा बाजार रंग-बिरंगी जादुई छतरियों में तब्दील हो गया है। एक से एक सुंदर-सपनीली छतरियां। मन में कामना जगाती छतरियां। ऐसी-ऐसी मोहक छतरियां कि उन्हें चुन पाने का मोह संवरण कर पाना मुश्किल। मंत्रामुंग्ध-सा वह बड़ी देर तक उन छतरियों में अपने लिए कोई छतरी तजबीजता रहा।

आखिरकार, उसने तय किया कि वह छतरी खरीदेगा जरूर, भले ही इसके लिए उसे सिंगेसर बाबू का पोस्तादाना शहर पहुंचाने का जोखिम क्यों न उठाना पड़े?


 

अवधेश प्रीत 

 

एमए( हिन्दी) कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल ।

पुस्तकें: हस्तक्षेप, नृशंस, हमजमीन, कोहरे में कंदील, चांद के पार एक चाभी,अथ कथा बजरंग बली,मेरी चुनी हुई कहानियां (कहानी संग्रह) प्रकाशित।

उपन्यास :अशोक राजपथ, रुई लपेटी आग

दैनिक हिन्दुस्तान( पटना) में दैनिक व्यंग्य काॅलम लेखन। सैकड़ों लेख , रिपोर्ट, टिपण्णियां और समीक्षाएं विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित ।

सम्मान: बनारसी प्रसाद भोजपुरी कथा सम्मान( हिन्दी) ,अ.भा. विजय वर्मा कथा सम्मान, मुबंई, सुरेन्द्र चौधरी कथा सम्मान, फणीश्वरनाथ रेणु कथा सम्मान ।

संपर्क: 8877614422/ 9431094596

avadheshpreet@gmail.com

 


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