नरेश चंद्रकर की इन नम कविताओं में अदृश्य उदासी के बीच स्मृतियों में बीता समय ,लोग और जगहें आज में
जीवंत हैं।मैं जैसे कवि की बंद आंखों से देखता हूं कि वहां प्रेम कृष्ण रंग में है।वह लेकिन आने में जाता हुआ है।यह अनुभूति करुणा की कोख से पुकारती है।एक प्रार्थना का सा कोमल उदास स्वर है जो घूमती पृथ्वी सा गतिशील है।मानो कथक की ततकार आकार ले रही है।इसमें ‘पैर’ कविता है और कवि को साधता -चलता गतिशील भाव है जो दर्द और अभाव में प्रेम को बचाने में समर्पित है।नरेश की इन इबारतों में प्रकृति से गहरी बावस्तगी है।और मृत्यु से परे सोचता एक दाम्पत्य जीवन है।जहां जीवन की ‘धक-धक’ हस्बेमामूल है।और यह वहां तक होने के अहसास में है जहां आई सी यू में उसकी अपरिहार्य ज़रूरत है।इन कविताओं में संझाती की पवित्र कोमलता है तो डूब गये सूरज की नातों में उभरती करुण तस्वीरें हैं। ‘ तस्वीरें ‘ – कविता में विदा हो गये समय और परिजनों के धुंधलाते स्टिल्स हैं।
वर्तमान में प्रोद्योगिकी से उभरे नव यथार्थ हैं और उनके बीच से झांकते कुछ सवाल।’मिस्ड काल’जैसी कविता में प्रयोग के साथ आत्मीय छुअन का सखा भाव है। कवि इसे मनुष्य से आगे ,यह सोचता दुखी है कि ‘मिस्ड काल’ सतपुड़ा का नहीं है।उसने ज़रूर लगाया होगा पुरखा भवानी प्रसाद मिश्र को लेकिन वह पहुंचा नहीं और महान कवि से कविता में भाव सा कुछ आने से रूठ गया।ये अनुभूत्यात्मक कविताएं हैं जैसे किन्हीं स्थिर पलों से बूंद-बूंद झरतीं।व्यापारियों के इस युग में अब भावनगर अलंग में जहाजों के तोड़ने का बाज़ार है,हर चीज़ तोड़ी जाने के बावजूद बनती हुई क़ब्रगाह में ज़िंदा हैं।बाहर के बिना भीतर कब संभव है। यहां स्त्रियों की कोमल तानें हैं।पत्नी हो या बहनें।पानी हो या पौधे। संगीत हो या बारिश।ये कविताएं जागते हुए लम्हों की हैं। बाज़ार और अतिशय गतिवान प्रौद्योगिकी में जीवन के प्रेमिल रूप बिखर रहे हैं । ये कविताएं उन्हें बचाने का काम एक गहरे यक़ीन के साथ करती हैं।
लीलाधर मण्डलोई की इस टीप के साथ नरेश चंद्रकर की कविताएं सुधी पाठकों के समक्ष विचार के लिए प्रस्तुत हैं।
-हरि भटनागर

 

कविताएँ

 

उसका आना जाना है

पहले तो उसने कहा:
आऊंगा बड़ौदा तुम्हारे पास

फिर चला गया
माल्यार्पित तस्वीर छोड़कर अपनी

बड़ी देर बाद समझा
आना उसके लिए जाना था !!

 

तारीख

जो तारीख स्मृति में दर्ज है
उस दिन तुमने कहा था —
“हां, मैं साथ चलूंगी”

धूप कपड़े सुखा रही थीं
बादल फटे नहीं थे आकाश में
तुमने ऋतुओं को सौंप दिए थे
अपने सभी रंग

फिर प्रसन्न होते हुए कहा था—
क्या यह कुछ कम है
इतना सब जो मिला है तुम्हें

और पृथ्वी
अबतक घूम रही है तुम्हारे लिए !!

 

नींद

तुमने कहा
कल रात नींद उड़ गई थी
यही नींद कभी
आंखों में ठूंस ठूंस कर भरी होती थी

आखिर यह तुम्हारी नींद है

एक स्त्री की
बेमुरव्वत नींद !!

 

पैर

उन्हें चलने कहता हूं
चलते हैं मीलों तक मेरे साथ

अनेक बार दौड़ाया भी उन्हें

दाएं बाएं की राजनीति से दूर
साथ साथ रहते रहे
वे मुझ में

मुझे सधे कदमों चलाते रहे
हड्डियों को उन्होंने ही बचाया
टूटने से

जितना गुण गान करूं कम है

उनके लिए खरीदे मैंने
केवल जूते चप्पल
परन्तु वे खुश रहे उसी में
संभालते रहे मुझे गिरने से

भारी दर्द में थे जिस दिन वे
तब भी साथ रहे वे मेरे

पैर छूता हूं
पैर तुम्हारे !!

 

कह सकेंगे कभी

बालकनी में बैठता था
गिलहरियाँ दौड़ती थीं आसपास
सत-पत्ते,अमलतास के पेड़ होते थे

कह सकेंगे कभी
पच्चीस तीस गमले हुआ करते थे
सींचता था जिन्हें रोज

कह सकेंगे
किताबें थीं अनेक,कुछ मेरी भी

दो बच्चे
देस परदेश में बसे हुए

प्रेयसी पत्नी चश्मा पहने हुए
खुद से सिलती थीं
अपने कपड़े
किताबें पढ़ती थीं

कह सकेंगे
मृत्यु के बारे में सोचे बिना
जी रहे थे हम दोनों सारस

हम इतना तो कह सकेंगे—
रहते थे इस जगह पर
बारिश में छिपी ठंड की तरह !

 

धड़कनें

धक धक करती रहीं तुम
जब स्त्री से मिला था
पहली बार

तुम धीमे चलने लगी थीं
जब भी मैंने
प्रार्थना में जोड़े थे हाथ

कभी कभी
क्षणांश भर के लिए रुकीं भी
तो चल पड़ी थीं तब का तब
जब भी मैंने देखा हो किसी हादसे को

पाब्लो नेरुदा की कविताओं का
अनुवाद करते समय
उछल रही थीं तुम
गेंद की तरह

कभी देखा नहीं है तुम्हें
परन्तु धक धक से महसूस करा देती हो
अपने होने को

तुम चल सके तो चलो न
अपनी धक धक के साथ
हर आई.सी.यू. के बीमार के पास !!

 

तस्वीरें

चालीस बरस पीछे
उछाल दिया था एक तस्वीर ने तुम्हें

तस्वीरें इशारा कर करके
बुलाती रहीं हैं अपने पास रोज
वे जिस बरस में
तैयार हुई थीं
उसी बरस में खड़े होकर
राह देखती हैं तुम्हारी

तुम हो कि
महानगर की महाकाया में
डूबे रहते हो
सुंदर तस्वीरों को कहीं छिपाकर

जिनकी कोमल अंगुलियों में
लुभावने बुलावे होते हैं
पर तुम
नज़र फेरे रहते हो उनसे

पूछती हैं वे समवेत स्वर में —
“पलटकर देखना नहीं था तुम्हें
तो क्यूं इतनी तस्वीरें लीं”

तस्वीरों के दुख में
इतना अंधेरा भरा है इन दिनों
कि वे अब
धुंधली पड़ने लगीं हैं पड़े पड़े

तस्वीरों में कई जा चुके
परिजन हैं जो अब
तस्वीरों से भी लौट रहे हैं
काल के बड़े बड़े हंडों में

देखना तस्वीरें एक दिन
कोसेंगी तुम्हें
यह कह कहकर कि
“एक दिन तुम भी
अपनी ही तस्वीर में डूब मरोगे”

 

मिस्डकॉल

धुंधला-सा वह एक मिस्डकॉल था
सतपुड़ा के जंगल का
पहले उसने ज़रूर लगाया होगा
भवानी प्रसाद मिश्र को

उनसे संवाद की मंशा संभव है
उस महान कविता की
किसी पंक्ति का भाव
इतने बरस बाद
लुभा गया होगा सतपुड़ा को

उलझन में रहा बहुत देर मैं भी
अपनी कविताओं को लेकर
कहीं तो सतपुड़ा पर
एक भूली-सी पंक्ति तक नहीं आई है
फिर क्यूं मिस्ड कॉल मुझे

कवि मित्रो,
उल्लास का विषय हो सकता है या
उद्विग्नता का
यह कि मिस्डकॉल मिल सकता है
पेड़, पहाड़,झरने,गिलहरी या
किसी भी आदमी का
जिन पर पंक्तियां आई है
आपकी रचनाओं में

ऑनलाइन के इस समय में !!

 

अलंग

(भावनगर का अलंग जहाज तोड़ने वाली साइट है, यहाँ जहाज तोड़े जाते हैं. उसके बाद मिलने वाले लोहा, कांच, प्लास्टिक, एल्यूमीनियम, लकड़ी के फर्नीचर व्यापार के काम आते है, देशभर में जाते हैं)

अलंग पर सोचते हुए लगा —

जहाजें समाप्त हो रही हैं लगातार
यात्राएं सिमटती जा रही हैं
तारीखें बढ़ रही हैं
अगले महीनों की ओर द्रुत गति से
वर्ष बीत रहे हैं
लंबे-लंबे डग भरते हुए

“मुझे देखो”
तभी कहा अलंग से आए
छोटे-से एक काठ-फर्नीचर ने

“तोड़े जाने पर भी जिंदा हूं ”
जारी है सफर
जारी है ज़िंदा रहने की लड़ाई
जहाज भले ही तोड़े जाते रहें
बनती रहें कब्रगाहें

फिर भी अलंग तो अलंग है
सब तरफ होगा अलंग !!

 

घर बाहर

घर की बत्ती बंद की
और मैंने कहा—

“रौशनी आयेगी ज़रूर
ज़रूर आयेगी रौशनी”

कुछ देर में आई
बाहर की रौशनी

“मुकम्मल कुछ नहीं होता
बाहर के बिना”

तुमने कहा !!

 

देश की चीजें

घर की घड़ी थी
सो सोचा —

उसमें जो समय होगा
घर का ही तो समय होगा न

अनाज से भरे कुछ डिब्बे दिखे
सो सोचा —
घर के ही तो अनाज होंगे न

“पर ऐसे नहीं”
तुमने कहा —
“सभी देश में बनी चीजें हैं घर में

समय भी” !!

 

बहनें बन जाते हैं हम

खिल खिल खिल स्वर में
खिलखिलाते हुए
बहनें केवल
राखियाँ बांधने नहीं आतीं
स्पर्शों से भर देती हैं हमारे
सूखे बहते हुए रक्त को

मौसम की चपेट में
बीमार होते हैं जब
घरेलू औषधि की
डिबिया थमा जाती हैं

ऐसी ही एक डिबिया
जब खांसते हुए आए
एक मित्र को दी मैंने

तब लगा —
बहन हो गया हूं

तब लगा —
बहन होना
पुरुषपन का झर जाना है !!

 

सवाल पूछने है

एक बार पानी से पूछना है
कैसे मिटा देते हो लिखा सब कुछ

हवा से
ऑक्सीजन रखने की तरकीबें

कवियों से
कुछ बड़े कवियों से खासकर
कैसे शब्दों में
छिपा रखते हो व्यंजनाएं

संगीत के बड़े घरानों से
एक एक कर
पूछना है कई सवाल

चौमासे की बौछारें झेलते
नारियल के पेड़ से तो कई सवाल है

झोला लेकर निकलता हूं एक दिन !!

 

रिंगटोन

वक्त बेवक्त कभी भी बज सकती हूँ
असल में हूँ ही बजने के लिए
पसंद से चुनकर आईं हूँ
पर पसंद के वक्त ही बजूँ ,यह ज़रूरी नहीं

घोर गृहस्थ-जीवन की बातों के बीच बजती हूँ कभी
विचार-संगोष्ठी के ठीक बीच में भी कभी
कि अंत्येष्ठी की विधि करके बाहर निकलते समय भी
कभी बज जाती हूँ

सबसे बुरा हुआ मेरा बजना एक दिन —

जब क्रांति-चेतना और परिवर्तन की जन-चेतना पर
वक्तव्य दिया जा रहा था
और मैं बज उठी –

एकदंताय वक्रतुण्डाय गौरीतनयाय धीमहि ।
गजेशानाय भालचन्द्राय श्रीगणेशाय धीमहि ॥


नरेश चन्द्रकर

नागौर के एक मारवाड़ी परिवार से और जन्म हैदराबाद में ।

(1) बातचीत की उड़ती धूल में (2002) (2) बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी (2004) (3) अभी जो तुमने कहा (4) नए शब्द सुनूंगा (कविता-संग्रह) (5) लौट चुकी बारिशें (2021) (6) सुनाई देती थी आवाज़(2023 ) (चयनित कविताएं)

(1) साहित्य की रचना-प्रक्रिया(1995) (2) चली के जंगलों से पाब्लो नेरुदा का गद्य (2007) (3) जन बुद्धिजीवी एडवर्ड सईद का जीवन व रचना-संसार(2022) (4) कागज़ पर लिखी बातचीत (2023 ) (5) कुछ कवि कुछ किताबें (2023 ) (गद्य पुस्तकें)

कविता में अपने विशिष्ट योगदान के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित मंडलोई कविता-सम्मान 2008 आलोचना पुस्तक साहित्य की रचना-प्रक्रिया के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (गुजरात, 1996) (सम्मान)

रेख्ता के हिंदवी प्लेटफार्म पर और कवियों की सूची में शामिल एक कवि । विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं मैं कविताओं के अनुवाद और कविताओं पर पोस्टर

वडोदरा में रहते हैं

ईमेल nareshchandrkar@gmail.com

0986736618

 

 

 

 


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