कविताएँ
चट न लो फ़ैसला
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आज शाम जाकर मिला दोस्त शिवराज से
अरसे से इधर फोन पर लगते थे नाराज़ से
दुआ-सलाम इधर-उधर की बात
कहने लगे छोड़ दिया भैया पीना आज से
चिहुंका मैं क्या हुआ यार
कहने लगे आ गयी है हम दोनों के बीच दरार
बहुत दिनों से चल रहा था झगड़ा – तकरार
मान गया भैया मैं उससे हार
बिना बात करती है वो रार
अरे किस बात झगरा था भाई
मियां -बीबी की बात है
क्या हुआ जो हो गई हाथापाई
ऐसे कोई थोड़े ही हार मानता है भाई
कहने लगे खाने पर लड़ती है
पीने पर झगड़ती है
मेरी कविता पढ़कर शक-सुबहा करती है
मेरे जीवन में है कई नार
ऐसा हरदम कहती है
कहने लगे भाई शिवराज
तकरार में कह दिया उन्होंने भी भाभी को दगाबाज
फिर क्या था बन गई वो रणचंडी छोड़ सब लोकलाज
क्या बताएं उसके बाद क्या हुआ दिन में आज
हर घर में झगरा है मरद-लुगाई में
किस को दूँ दोष
भाभी है सोने की
मुझे तो कोई दोख नहीं आता नजर शिवराज भाई में
ज़रा सी बात सह लेते
दोनों हंसी मज़ाक में गिले-शिकवे कह लेते
किसमें नहीं है कुछ कमजोरी काश समझ लेते
कौन नहीं लड़ता है, लड़कर दोनों गले लग लेते
कहा मैने आओ भैया पी लो
जीवन जैसे जीते हो जी लो
कथरी जो फट जाए, फेंको नहीं, सी लो
भाभी को दो समय ज़रा फिर उनसे मिलो
झुक जाओ
चट न लो फ़ैसला रुक जाओ!
***
बेतरतीब छंद
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शब्द मिला वफ़ादार मतलब उसका मक्कार
शब्द मिला इनकार मतलब था स्वीकार
विद्रोही समझा जिसे अव्वल दर्जे का वह चाटुकार
उन्होंने मारा पीठ में छूरा जिन्हें समझा यार
यह दौर ऐसा घनघोर विकट है
पल में तोला पल में माशा फटाफट है
नफ़रत है अंदर, जीभ पर प्यार की रट है
कहता हूँ अच्छा पर रहा सब बुरा ही घट है
दिवस में देखो कितना हुआ अंधेर
दिन दोपहर लूट बलात्कार लाशों की है ढेर
रामनामी ओढ़कर नगर में आया है शेर
रजनी ही रोशन समय का ऐसा है फेर
यह इतना चौंधियाता समय है
कि आपका धोखा खाना तय है
यह चुप्पी शांति नहीं दरअसल भय है
जिसके हाथों में लाठी उसकी जय-जय है
प्रेम का नफ़रत में अनुवाद हुआ है
आदमी चेहरों की किताब हुआ है
जीवन का छंद बेतरतीब हुआ है
रिश्तों का अनुक्रम पाखंडों में बँटा हुआ है।
***
आम आदमी
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मैं आदमी क्या
बस वही मांस और हाड़
मेरे सामने ज़िम्मेदारियों का पहाड़
सुबह से शाम होती झोंकते बस भाड़
दिन और रात
दिन और रात
रोज़-रोज़ वही तो बात
जैसे नियति हो घात-प्रतिघात
दायरा यहाँ से वहाँ तक
श्रम से दरमाहा तक
चाबुक ही चाबुक पहुँच मेरी जहाँ तक
सुनाऊं व्यथा मैं कहाँ तक
मौसम बदलते हैं
मालिक बदलते हैं
मगर मेरे भाग्य वही तो रहते हैं
ठंड में ठिठुरते
गर्मी में तड़पते
बारिश में भीगते-गलते
पेट भरते तन ढँकते
जी हुजूरी करते-करते
चला जाऊंगा गिरते-पड़ते!
***
हार गये
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यूँ ही नहीं टूटा भरोसा
पहले तो उस बेटे ने कोसा
जिसको जन्म दिया, पाला-पोसा
यूँ नहीं छोड़ दी अच्छाई
पहले तो धोखा दिया सगा भाई
जिसकी न जाने कितनी बोझ उठाई
बेवजह ही नहीं छोड़ दी सच्चाई
सच्चाई उनकी भला कहाँ किसी को रास आई
उसके कारण ही झेला झगरा-झंझट मार-पिटाई
साहस के कारण संगी ने छोड़ दिया
लचीला हुए तो सबने मोड़ दिया
ज़रा से स्वाभिमान पर अपनों ने ही तोड़ दिया
सत्पथ पर चले लुट गये
स्वारथ के संगी सगे सब छूट गये
ममता के कारण ही वे टूट गये
जब वे अपनों से ही हार गये
तो कुछ भी पूछा चुप्पी मार गये
हर मसले को हँस कर टाल गये!
***
आई लव यू यार!
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तीन गली छोड़कर
रहती थी वह चाय वाले मोड़ पर
हिम्मत ख़ूब जोड़कर
खिड़की से फेंक आया चिट्ठी मैं मोड़ कर
लाल गमछा ओढ़ कर
महीना था फरवरी दिन था इतवार
न जाने कौन भूत हुआ था सवार
जाति का मैं अहीर था बाभन की वह बेटी थी
खिड़की के पास ही तखत पर वह लेटी थी
चिट्ठी मेरी पकड़ी गई
जान मेरी कूटी गई
क़िस्मत मेरी फूट गई
फरवरी में जलाया गया घर
बाबू मेरे भटके शहर-दर-शहर
जब भी आती फरवरी
माई मेरी रहती डरी-डरी
बुलाती मेरा नाम लेके घरी-घरी
यार मेरे जीवन में नहीं आया प्यार
ज़िंदगी मेरी ऐसी है लाचार
सलेमपुर की गीता संग बसाया घर-बार
सुबह-शाम होती है तकरार
भड़कती है जब कहता हूँ ‘आई लव यू यार!’
***
खेती-बाड़ी
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अरे भैया ये किसान
कर रहे आजकल बहुत परेशान
हक़ माँग रहे हैं
हिसाब माँग रहे हैं
ये अन्न का दाम माँग रहे हैं
इनके बेटे काम माँग रहे हैं
ऐसा करो इनके खेत ले लो
दाम इनको औने-पौने दे दो
घर में बैठाओ इनको
बोलें तो लाठी से मार भगाओ इनको
दो इनके खेत फैक्ट्री लगानी है जिनको
न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
खेती-बाड़ी की झंझट ही ख़त्म करो ससुरी
हम-आप विदेश से मँगा लेंगे
जैसे खाते हैं, खा लेंगे
इनको लोकतंत्र पकड़ा देंगे!
***
यह हम सबका ही क़िस्सा
________
नई-नई हुई है शादी
सुबह-शाम पकानी होती है चार रोटी
आफ़िस में हुई देर, बॉस खिंचता है चोटी
वहाँ भी हूँ मैं सबसे ही छोटी
कभी अच्छा कभी सुंदर कहता है
मुझे देर तक रुकने को छछूंदर कहता है
है चार जवान बच्चों का पापा
ज़रा सी बात में खोता है आपा
कभी यह तो कभी वह
कुछ भी देता है कह
शर्माता नहीं है दंतचियार
गुस्सा तो आता है कि दूँ दो थप्पड़ मार
सबके सामने ही दूँ भूत उसके उतार
नौकरी के ख्याल ने बना रखा है मुझको लाचार
कहाँ-कहाँ बचे लड़की
आते-जाते मिलते हैं ठरकी
पिया भी मेरा नंबर वन है सनकी
कहाँ सुनता वह किसी की
बच के बचा के चल रही हूँ
जैसे जंगल के बीच से निकल रही हूँ
यह हम सबका ही क़िस्सा
कोई नयी बात थोड़े ही कह रही हूँ।
***
बताना चतुर कवियो
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लिखना नहीं है खेल
यह तब लगा, चला गया भाई
लिखने के कारण जब जेल
वे कुशल लोग हैं जो लेते हैं शब्दों से खेल
शब्द मगर सच बोलें
कुर्सी पर बैठा आदमी नहीं पाता उनको झेल
लिखने के कारण मारा गया एक दोस्त बस्तर में
लिखने के कारण कोई पकड़ा गया है कुंभ शहर में
कुछ लोग लिखने के कारण ही पा रहे पदवी और पुरस्कार
पैसे भी कमा रहे कुछ लिखने वाले ऐसे होशियार
कुछ लिखने के कारण ही खा रहे पुलिस के डंडों की मार
कहिए लिखूं कौन सा अक्षर
लिखते लगता है अब डर
सपने में बुल्डोजर ढाहने लगता है घर
वे खिलौने जैसे शब्द कहाँ से लाऊं
जिनसे खेल कुर्सी पर बैठे राजा को बहलाऊं
आँखें मूँदकर कौन सा गाना गाऊं
बताना चतुर कवियो
किस राह मैं आऊं-जाऊं
कैसे सच को मैं पीठ दिखाऊं!
***
वक़्त की तरह नहीं बदलना
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ग़र कुछ ऊंच-नीच हो गई हो गत साल
तो माफ़ कर देना भूल जाना उसे इस साल
रखना मुझे साथी अपने दिल में हर हाल
अपना हाथ बढ़ाना लड़खड़ा न पाये मेरी चाल
जीवन कोई कैलेंडर नहीं
साल के बदलने से उसे कोई डर नहीं
माना कि बुरा बहुत हूँ
मगर तुम्हारे बग़ैर अधूरा बहुत हूँ
माथे का चंदन नहीं, पैरों की धूल हूँ
बावला जो बोकर आम, काटता बबूल हूँ
रखना साथी, अपने संग ही मुझे रखना
तुम्हारे बग़ैर भी क्या ज़िंदा रहना
रास्ते में आते रहते हैं मुसीबतों के पहाड़
हाथ जो पकड़ लेंगे तुम्हारा, क्या लेंगे बिगाड़
लड़ना झगड़ना रूठना मचलना
चाहे जो भी सुनाना कहना
पर साथी वक़्त की तरह नहीं बदलना
आना-जाना घूम आना कहीं, पर मेरे दिल में रहना!
***
हर साल
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क्या नया साल और क्या गया साल
मेरा जीवन तो वही रोटी और दाल
दवाई खटाई और रुलाई में गुज़रा गया साल
कंबल न रजाई ठंड की चढ़ाई के सामने नया साल
पूरी ठंड कांपते हुए काटूंगा
बसंत में कोयल बन बाग-बाग कुहकूंगा
ज़रा सी हवा में टिकोले सा झरूंगा
महुआ हूँ झरूंगा देसी दारू में पड़ूंगा
गर्मी में आग बन जाऊंगा
दुपहरिया में निकल के कमाऊंगा
तपूंगा जलूंगा जलते हुए चलूंगा
आप खिड़की से देखना हांफते हुए मिलूंगा
आएगी निगोड़ी बरसात
टपकेगी मड़ैया सारी रात
दिन भर का थका-हारा गात
जागते गुजारेगा पूरी-पूरी रात
हर साल यही होता है
मन मेरा बेवजह उम्मीद को बोता है
कोई साथ नहीं होता है, मन मेरा रोता है
उड़ जाए चिरईं, रह जाए खोंता है!
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आदिवासी
____
जहाँ भी गया
हर जगह मुझे पंक्ति में खड़ा किया गया
आई जब बारी मेरी तो बखेड़ा किया गया
इस तरह पंक्ति से भी बाहर किया गया
भूलकर मानवता की शर्म
पूछा गया जाति और धर्म
जब बताने से किया इनकार
मेरे लिए बंद किया गया द्वार
जब की मैंने हक़ की बात
बताई गई मेरी औक़ात
मुझे याद किया गया हर पाँचवें साल
जब मैंने जानना चाहा मुल्क़ का हाल
हिकारत से दिया गया, चावल और दाल
पढ़ाई दवाई कमाई के नाम पर बजाया गया गाल
मेरी झोपड़ी उजाड़कर कारखाने लगा दिये
जो मुँह खोला तो होश ठिकाने लगा दिये
मुझे कभी आदिवासी कहा गया
कभी वनवासी कहा गया
मेरे ही देश में मुझे प्रवासी समझा गया!
***
जान हथेली पर लिए
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ये लोग कहाँ से आये हैं
नट हैं छत्तीसगढ़ से आये हैं
दोनों तरफ़ दो-दो बांस जमाये हैं
बीच में मोटी रसरी लटकाये हैं
रसरी पर चढ़कर
ख़तरे से खेल रही है मोनी बुचिया
किसने खींच दिया है देश के पृष्ठ पर ये हाशिया
जहाँ ऐसे जीवन जीने को विवश है ये मुनिया
यही इनके जीवन का आधार है
पेट भरने भर को भटकता यह परिवार है
मुनिया जान हथेली पर लिए रस्सी पर सवार है
हे भारत भाग्य-विधाता! तुम्हें धिक्कार है
इनका इस धरती पर कहीं कोई घर नहीं है
कह रहे ये कि मौत से तो हमें कोई डर नहीं है
करे क्या आदमी जब कोई आसरा रोटी भर नहीं है!
***
माला बेचने वाली लड़की
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शुक्रिया आपको अच्छा लगा मेरा मुस्कुराना
कभी आप मेरे गाँव भी आना
देख पाएं तब शायद मेरा रोना-गाना
शायद समझ लें मेरी ज़िंदगी का ताना-बाना
दूर शहर से आई हूँ मैं माला बेचने
आएं होंगे आप तो मेला देखने
कुछ आएं हैं यहाँ पाप धोने
सबके हैं मक़सद अपने-अपने
मैं माला बेचकर ज़िंदगी चलाती हूँ
भैया कुछ कमाती हूँ तब खाती हूँ
कमाने के लिए मैं नगर-नगर जाती हूँ
आँखें छलक न जाएं, सो मुस्कुराती हूँ
मैं समझती हूँ आपके इशारे
पर ज़िंदगी जी नहीं सकती उस सहारे
जाइये गंगा में बहा दीजिए अपने मंसूबे सारे
दो रोटी कमाने दीजिए हटिए ज़रा किनारे
एक माला ले लीजिए
अपनी लंपटता को वश में कीजिए
दिल में शराफ़त को ज़रा जगह दीजिए
आएं हैं पाप कटाने तो कुछ पुण्य कीजिए
शुक्रिया आपको मेरी आँखें पसंद हैं
मगर आपकी वजह से मेरा काम सब बंद है!
***
प्रेम की भूख
_________
प्रेम की भूख किसे नहीं है
कृपया अपना हाथ उठाए जिसे नहीं है
क्या मरद क्या औरत क्या बच्चा
हर इन्सान प्रेम ढूँढ रहा है सच्चा
गया गांव-जवार में चाहे खेत-बधार में
नगर-नगर जाकर देखा घर-बार में
हर आदमी दिखा प्रेम के इंतज़ार में
प्रेम में देखा लफड़ा भारी
प्यासे ही जग में रह गये नर-नारी
ज्यों जाल में उलझी मछरी बेचारी
जो प्रेम में था उसे भी था प्रेम का इंतज़ार
गजब का यह संसार
प्रेम का पंछी हर वक्त जैसे उड़ने को तैयार
सच कोई नहीं बोले
मन ही मन मन डोले
मिले मन तो पल दो पल संग हो ले
नहीं मिटती प्रेम की भूख है
प्रेम भी एक सुख है
मगर उससे सटकर रहता दुख है!
***
पुस्तक मेला आऊंगी
_______
करोलबाग से तुम आना
मैं ग्रीन पार्क से आऊंगी
दो बजे प्रगति मैदान मेट्रो पर मिल जाऊंगी
घर से झूठ बोल कर आऊंगी
आफ़िस में हाफ डे लगाऊंगी
तेरे संग सेल्फी मैं खिंचाऊंगी
तेरे पुस्तक मेले में मैं आऊंगी
और सुनो राधेश्याम
मुझे तेरी किताबों से क्या काम
घूमेंगे हाथ में डाले हाथ पूरी शाम
छोले-भटूरे खाएंगे
बैठ कहीं गपिआएंगे
हँस-हँस गले लग जाएंगे
तुम खींचना मेरी फोटो
मैं खिंचूँगी तेरी फोटो
और सुनो डार्लिंग राधेश्याम
फेसबुक पर फोटो डाल करना ना बदनाम!
***
पुस्तक मेले में नहीं मिले हम
__________
रोज़-रोज़ गया इस बार मेले में
किया इंतज़ार तेरा बैठकर अकेले में
क्या हुआ जो हम नहीं मिले पुस्तक मेले में
छोले भटूरे क्या कम अच्छे मिलते हैं बब्बू के ठेले में
मिलेंगे आज वहीं सेक्टर बारह के मोड़ पर
आना तुम सारा काम-धाम छोड़ कर
मम्मी जो पूछें तो आना अर्जेंट काम बोल कर
मुझे पीनी है लव वाली लस्सी
शहद जैसी तेरी बातों में घोल कर
मैं तेरा ‘गुनाहों का देवता’ लेकर आऊंगा
तुझको बाइक पर बैठाकर गोलचक्कर घुमाऊंगा
तुम मेरी ‘मधुशाला’ लेकर आना
देखो आज कोई बहाना न बनाना
तुम चांद-तारों की करती हो बात
अरे पागल वे निकलते हैं जब चढ़ती है रात
हमारी तो होगी बस ज़रा देर भर की ही मुलाक़ात
चाहे जैसे भी आना
बुरके में आना
दुपट्टे में आना
गलियों से छुप-छुप के आना
देखो आज थोड़ी जल्दी से आना
क्या हुआ जो पुस्तक मेले में नहीं मिले हम
हमें मिलने से रोके ज़माने में नहीं इतना दम!
***
समय ही ऐसा है
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जहाँ अन्याय दमन हो
वहाँ जुबान पर ताले लटकाएगा
जहाँ चीखना हो लड़ना हो
वहाँ चुप रह जाएगा
झुक जाएगा
जिस पर चाहिए थूकना
उससे हँस-हँस कर बतियाएगा
हत्या पर ग़र ताली बजाएगा
हत्यारों की शान में कविता सुनाएगा
तो हे श्रीमान तू क्या नहीं पा जाएगा
समय ही ऐसा है
सत्य बोलेगा, मारा जाएगा
झूठ बोल बे मंच पे तूझे पुकारा जाएगा
माथ नवा बे इज़्ज़त पदवी तमगे पाएगा
लोकतंत्र का नया ज़माना
पहले पिंजरे में आ बे
तभी तो कटोरी का दाना खाएगा!
***
सुनो दु:ख!
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ए दु:ख! ऐसा भी क्या प्यार
जो रहते हरदम हमरे ऊपर ही सवार
जाकर कहीं और भी हो आइये कभी-कभार
मना लें हम भी अपने परिवार संग होली-त्योहार
ए दु:ख! आप महलों में क्यों नहीं जाते
जाकर अमीरों के घर क्यों नहीं छप्पन भोग उड़ाते
सुखियों के घर जाते तो क्या नहीं पाते
हमरी सूखी रोटी पर क्यों हैं लार टपकाते
ए दु:ख! हमरे पास न रुपिया न पईसा
देख ही रहे हैं जीवन जी रहे हैं कईसा
हमरे भाग के दुआरी बइठा रहता जमराज के भईंसा
जिनगी हमारी अनेरिया कुकुर के जईसा
ए दु:ख! आप ही बताएं हम कहाँ चले जाएं
कौन दरवाज़ा खटखटाएं कइसे न्याय हम पाएं
बताइए न और कितना जांगर खटाएं
कौन जतन करें कि हम भी कभी जीतें जश्न मनाएं
ए दु:ख! बहुत हुआ अनुनय विनय
बहुत खाया इनसे उनसे सबसे ही भय
अब कुछ दूसरे करेंगे हम मिली-जुली तय
बदलेंगे बदल के रहेंगे जिनगी के छंद अरु लय!
***
मज़दूरी में क्या देंगे
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रोज़ शहर के चौराहे पर
ज़िंदगी की रोशनी आँखों में भर
अलसुबह ही जुटते हैं दस-बारह गांवों के लोग
खड़े रहते हैं
हर गुजरते को तकते रहते हैं
वे मन ही मन कुछ तो कहते रहते हैं
क्या आपने सुना जब आप बगल से गुज़रते हैं
किसी की मां बीमार है
किसी पर पंसारी का उधार है
हर आदमी यहाँ जो खड़ा है, लाचार है
साहब! समझते तो होंगे क्या दरकार है
आप टहल के आ रहे हैं
सुबह का सुहाना मौसम, गाना गा रहे हैं
वे आपको उम्मीद से देखते जा रहे हैं
क्या आप कुछ समझ पा रहे हैं
वे दूर से आये हैं चल कर
चिड़ियों के जगने से पहले घर से निकलकर
अपनी मुसीबतों से जूझेंगे आपके यहाँ वे खटकर
जीते हैं रोज़ इसी तरह ज़िंदगी से लड़कर
सुनो सूरज भैया, तुम आराम से आना
काम चाहिए इन्हें पहले, जिसे ज़रूरत हो बताना
कल चंदर को नहीं मिला था काम
हो नहीं पाया था उसके आटे का इंतज़ाम
आज तो मन ही मन जप रहा वह राम-राम
बबन कहता है, देखिए हमें पसंद नहीं आराम
कुछ भी बताइये, हमें तो करना है काम
बाबूजी ये आपका मकान बना देंगे
आपकी शानो-शौकत रंग कर चमका देंगे
आपके गमलों में ख़ुशबू के फूल खिला देंगे
कर देंगे हर काम जो आप बता देंगे
कहिए बाबूजी! मज़दूरी में क्या देंगे?
***
दोस्त
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दोस्त सतेन्दर का फोन आया शाम में
यार फ्रेंडशिप डे तो गया ससुरा जाम में
जबकि मैं लगा था ससुर सुबह से इंतजाम में
दिन भर मन अंटका रहा मेरा शाम में
भागता रहा भर दिन खूब इधर उधर इंतजाम में
मुर्गा लाया मच्छरी लाया
गरम मसाला भी पिसवाया
बियर की बोतलें सबसे पहले लाया
दोस्त मेरा मगर नहीं आया
दोस्त कहीं मस्त होगा
हो सकता है भाभी का गस्त होगा
या कहीं सेठ की नौकरी में व्यस्त होगा
हरदम ऐसा होता है
मौके से दोस्त मेरा गायब होता है
दोस्त मजबूरी का रोना रोता है
दोस्त हैं मेरे साथ ऐसा मुझे लगता है
मगर दोस्त बदल न जाएं यह डर लगा रहता है
दोस्तों के होने से यह जहां अपना लगता है
कहिए मेरे पाठको, आपको क्या लगता है?
***
कहाँ हो
———
ऐसा आदमी हूँ
कि कोई नहीं पूछता
कि कहाँ हो!
भूल गये सारे नाते रिश्तेदार हैं
दुश्मन की तरह अपने ही सगे परिवार हैं
हाकिम रहता हरदम सिर पर सवार है
ज़िंदगी में मेरे नहीं कोई रविवार है
काम पर जाऊँगा कल भी
कर्जे मेरे सिर पे सवार हैं
भागता रहता हूँ
नींद में भी चलता हूँ
जहाँ होता हूँ वहीं
किसी न किसी की आँखों में गड़ता हूँ
जबकि अपने पसीने पीकर पलता हूँ
भाई साहब! मार लीजिए बेशक मेरी मजूरी
पर मंजूर नहीं इस बंदे को जी हुजूरी
इस धरती पर आदमी मैं इतना गैर ज़रूरी
धरती भी रोती होगी
जो समझती होगी मेरी मज़बूरी
कल कहीं किसी चौक पर मारा जाऊंगा
हस्पताल में लावारिश पुकारा जाऊंगा!
***
बात सुनता हमारी तो
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यह ससुर हरे प्रकाश किस अकड़ में रहता है
न दुआ-सलाम न भैया-चाचा कहता है
दो कौड़ी का कवि है, झूठे बहादुर बनता है
कम से कम आकर वीकेंड पर मिल जाता
छूता पैर हमारे तो दिल हमरा खिल जाता
झुके सही तो जिनगी में का नहीं मिल जाता
आदमी को झुक-दब-सह कर रहना चाहिए
दुःख-दरद-बेमारी है तो हमसे कहना चाहिए
धारा जैसी बहे, उसी तरह ही तो बहना चाहिए
उसके सिर पर न जाने रहता है कौन सा भूत सवार
सच सोच समझ कर बोला करो कहा हमने कई बार
अपनी सनक में चौहद्दी मगर तोड़ देता है वह हर बार
दुर्गत सारी हुई नगर नगर से भगाया गया है
जख़्म खाकर पीठ पर मगर कहाँ संभल पाया है
अंगारे लिए ज़ुबान पर घूमता बौराया हुआ है
बात सुनता हमारी तो हम उसे आदमी बना देते
पैदल नापता है रास्ते, एक साइकिल दिला देते
पहुँच ऊपर तक हमारी, उसे हाकिम से मिला देते।
***
हरे प्रकाश उपाध्याय
कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम
बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।
पाँच किताबें-
चार कविता संग्रह –
1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं
2. नया रास्ता
3. काली मुसहर का बयान
4. हर जगह से भगाया गया हूँ
एक उपन्यास- बखेड़ापुर
अनियतकालीन पत्रिका ‘मंतव्य’ का संपादन
पता –
महाराजापुरम
केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास
पो- मानक नगर
लखनऊ -226011
मोबाइल – 8756219902
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